Adhyayan

Tuesday, 29 December 2020

सहेली सूरज की

सुनो, तुम हो सहेली सूरज की, अपनी चाल बढ़ा... 
आसमान की चौखट पर तू कूची फिरा, रंग रात को अलख जगा और वो रंग भी हो तो दिन का नूर! 
साये भी अब धमक चले, जो गर तुझको हो मंजूर तो ,
तूफां बन कर बेहिस उड़ा दे, चढ़ जाए ऐसा फितूर, 
चाहे टेढ़ी हो गोटियाँ, या अड़े हो पासे, पर तू जम जा जिद्दी जोर,
अपने हाथों की तंग लकीरों से चल आगे, पेंच लड़ा चल 'तनु', 
आसमान की सीरत पर कूँची चला और जम कर मुलाकातियों से हिम्मत के पेंच लड़ा !!!

Friday, 18 December 2020

बारकोड

🌸🌋!!!||Π|Π|[][]Π|||!!! 🌈🌸
             बारकोड 

बारकोड जीवन की समानता...
बारकोड खड़ी काली-सफ़ेद पट्टियों से बना होता है इसमें उत्पाद के बारे में जानकारी छुपी होती है जिसे कम्प्यूटर पढ़ सकता है।

ज़िन्दगी एक बारकोड है
दिखती सबको है
जीते भी सब हैं
समझना सब चाहते हैं
पर जो सामने है
वो सच नहीं है
और जो सच है
वो नज़र नहीं आता!
जो दिखता है
वो अर्थहीन है
जो महत्तवपूर्ण है
वो खुद को है हमसे छिपाता!

कभी खुश, कभी सुख, कभी दुख की छाया जैसी
काली पट्टियाँ घेर लेती हैं
तो कभी सुख की धूप
सफ़ेद पट्टियों का रूप लेती है
कुछ पट्टियाँ पतली हैं
तो अनेकों काफ़ी मोटी हैं
इसीलिए सुख-दुख की अविधि
कहीं लम्बी कहीं छोटी है

ज्ञानीजन बतला गए हैं
जीवन तो एक क़ैद है
कारागार है, एक पिंजरा है
बारकोड को ध्यान से देखो
सलाखें दिखती हैं जैसे यह
अपनी ही क़ैद का कमरा है

जीवन की तरह ही बारकोड भी
इक छोर से शुरु होता है
काली-सफ़ेद पट्टियों के बीच
गुज़रता हुआ हरेक इंसान
कभी हंसता है कभी रोता है
बस यूं ही आगे बढ़ते हुए
बारकोड समाप्त हो जाता है
क़ैद भी टूट जाती है
जीवन का अंत हो जाता है

भगवान भी एक बारकोड है
और उसके सारे बंदे भी
ना भगवान समझ में आता है
ना इस संसार के धंधे ही

जीवन भर सुख और दुख का
एक क्रम-सा चलता रहता है
जीवन तो नाम है केवल
सुख-दुख इन रेखाओं का
सीधी बात सी सीधी रेखाएँ
इनमें नहीं कोई मोड़ है
तभी तो अक्सर लगता है कि

ज़िन्दगी एक बारकोड है

Saturday, 12 December 2020

छुअन

तुम्हारे हाथों की छुअन... :)

अपने फ़लक के चांद को
कुछ सोचते हुए मैंने
खींच कर छुटाया
और थोड़ा दायीं ओर करके
फिर चिपका दिया
हाँ, अब सप्तर्षि ठीक से दिखता है
पर ऊपर की तरफ़ वो चार सितारे
अभी भी कुछ जँच नहीं रहे
ह्म्म
चलो इन्हें थोड़ा छितरा देती हूँ
लेकिन इससे जगह कम हो जाएगी
रोहिणी और झुमका के लिए
और हाँ, नीचे की ओर ये कई तारे
कुछ अधिक ही सीध में नहीं लग रहे ?

मैं इसी उधेड़-बुन में थी
अपने घर के आकाश को
सजाने की धुन में थी
कि तभी तुम आये
मेरे चेहरे पर छाई
दुविधा देख
तुम मुस्कुराये
कुछ पल गगन निहारा
फिर अपनी अंजुली में
समेट लिया आकाश सारा
पूरा चांद और हर इक तारा,

मैं चौंक कर अपनी उधेड़-बुन से निकली
मुझे अचरज में देख
तुम खिल-खिलाकर हँस पड़े
और बड़ी चंचलता से तुमने
सारे सितारे फिर से
आकाश में यूं ही बिखेर-से दिए

मेरी हैरत असीम हो गई!
हर सितारा अपनी जगह
तरतीब से टंक गया था
चांद भी अचानक
कुछ अधिक ही
सुंदर लगने लगा
और सारा आकाश
एकदम व्यवस्थित हो गया
फिर तुम करीब आकर
मेरे कांधे पर हाथ रख
बैठ गये!
मैं आश्चर्य की प्रतिमूर्ती बनी
कभी आकाश को, कभी तुम्हें
कभी तुम्हारे सुंदर हाथों को
देखती ही रह गयी

कुछ तो हुनर है
तुम्हारे हाथों की छुअन में
कि हर चीज़ सज जाती है
सलीके से
चाहे वो ज़िन्दगी हो या आकाश !
"तनु"

टीस

ख़ु्शी, मुस्कुराहटें
टीस की फिर आहटें
पुलकित हुआ तभी
मन ने आंसूओं के
हज़ार मोती चुगे!

रात भर, रात पर सोचती रही
दर्द का उठाए हल, 
निज-मन को जोतती रही

शायद ख़ुशी उगे!

रात गई
खुला सुबह का बाड़ा
सह लिया, था मन में दर्द समाया
रात्री-वृक्ष ने वेदना-फूल

और फल दिये!

सुबह हुई
हमनें रात को झाड़ा
तह किया, बगल में उसे दबाया
पथ के निहारे शूल

और चल दिये!
खुशी से खुशी की तलाश में चल दिये, फिर से चल दिये ! "तनु"

Tuesday, 8 December 2020

जीवन

उत्सव मेरे जीवन जीने के ढंग की बुनियाद है--त्याग नहीं, आनंद। 
आनंद सभी सुंदरताओं में, सभी उल्लास में, वो सब जो कुछ जीवन लाता है, क्योंकि यह सारा जीवन परमात्मा का उपहार है। 
मेरे लिए जीवन और परमात्मा पर्यायवाची है।

सच तो यह है कि जीवन ‘परमात्मा’ से अधिक अच्छा शब्द है। 
परमात्मा दार्शनिक शब्द है जबकि जीवन वास्तविक है, अस्तित्वगत है। 
‘परमात्मा’ शब्द सिर्फ शास्त्रों में होता है। यह मात्र शब्द है, निरा शब्द है। 
जीवन तुम्हारे भीतर है और बाहर है--वृक्षों में, बादलों में, तारों में। 
यह सारा अस्तित्व जीवन का नृत्य है । 

जीवन को प्रेम करो।

अपने जीवन को संपूर्णता से जिओ, जीवन के द्वारा दिव्य से मदमस्त हो जाओ।

मैं जीवन के बहुत गहन प्रेम में हूं, इसी कारण मैं उत्सव सिखाती हूं।
हर चीज का उत्सव मनाया जाना चाहिए; हर चीज को जिया जाना चाहिए, 
प्रेम किया जाना चाहिए।

मेरे लिए कुछ भी लौकिक नहीं है और कुछ भी पारलौकिक नहीं है।
सब कुछ पारलौकिक है, सीढ़ी की सबसे निचली पायदान से सबसे ऊपर की पायदान तक। 
यह एक ही सीढ़ी है : 
शरीर से लेकर आत्मा तक, शारीरिक से आध्यात्मिक तक, सब कुछ दिव्य है।  "तनु"

एक दिन

सिर्फ एक लाईन।
चलो, चल कर देखते हैं, अब जो होगा देखा जाएगा)
हाँ यही सोचा संज्ञा ने और रात के आठ बजे किसी अनहोनी न हो इस आशंका के चलते अपनी गाड़ी निकाल दी।

और विचारों के सिलसिले बढ़े तो पुरानी बातें याद आने लगी....

हाँ, अब ये भी तो जरूरी है कि आपका परिवार का वंश चलना, 
मेरे साथ तो ये नहीं हो सकता है न?
जानते हुए भी सवाल करती है संज्ञा।

मनीष - नहीं...
ऐसा भी नहीं है अब देखते हैं हम भी ये नहीं चाहते हैं अभी, जिंदगी यूँ ही अच्छे से कट जाए बस!

इसका क्या मतलब समझूं ?

कुछ नहीं, यहां बैठो चुपचाप, आपके साथ हमे अच्छा लगता है और इतना किसी से भी कभी कुछ शेयर नहीं कर पाए हैं, तुम क्या हो हमारे लिए, पता नहीं, क्या बात है दवाई बन गई हो हमारी!
अचानक रात के दो बजे पहुंचे मनीष ने कहा।
संज्ञा ने पकड़कर उसे संभाला।
मनीष की हालत से अच्छी तरह वाकिफ थी संज्ञा ।
मनीष बढ़बढा़ रहे थे और संज्ञा ने संभालते हुए मनीष के जूते उतारे और आराम से पैर ऊपर करते हुए मनीष को बिस्तर पर लिटा दिया। 

फिर कभी। 
वो बैठ तो गयी, सहारा बन गई या सहारा ले लिया उनका।
फ़िर भी सोच रही थी संज्ञा, कि क्या है ये सब, ये मोह ख़त्म क्यूँ नहीं होता, बाद में इस साथ के लेनदेन से बहुत तकलीफ होने वाली है !

तभी आवाज़ आई, सुनो...
अब ज़्यादा सोचो मत, अब इनवॉलव हो ही गए हैं तो देखेंगे....

क्या सोच रही हो तुम, हम जरा ये ऑफिस का काम ख़त्म कर ले फ़िर बात करते हैं,

ह्म्म... ठीक है, आप कीजिए काम।
मैं डिस्टर्ब कर रही हूँ आपको।

नहीं ऐसा नहीं है हमें परेशानी होती तो हम खुद कह देते या तुम्हें साफ़ मना कर देते।
हमें भी तुम्हारा साथ पसंद है।

ह्म्म.... ठीक है,

आप कीजिए काम।

यूँ ही चल रहा था ये सब।
कभी फोन पर, कभी सामने।

दोनों टूटे और एक दूसरे को सहारा देते हुए टूटते जा रहे हैं और आखिरी में और ज्यादा टूटने के लिए।

परिणति पता थी लेकिन हजारों की भीड़ खालीपन में एक जगह और घट रहे अज़ीब घटनाक्रमों में ये साथ अच्छा लग रहा था पर सहारे लेने वाले और देने की कोशिश करते हुए लोग कमजोर होते हैं।
ये जान रही थी संज्ञा, पर इन हालातों में काबू नहीं आ रहा था।

अचानक फोन आता है कि सुनो...
संज्ञा कहती है हाँ, बोलिए...
तुम कल यहाँ आ जाओ एकबार यहां आकर देख लो कैसे रहते हैं हम।
तब तुम्हें अंदाजा हो सकता है इस जगह का, घर का। 

ह्म्म्म, नहीं, नहीं आ सकती हूँ।
पहले आप मना कर दिए थे और हम तब ही समझ गयीं थीं।

हमें न का मतलब समझ में आता है जैसा समझाते वैसा समझ जाती हैं।
हाँ कभी कभी लगता है कि शायद सब सही होगा तो कदम आगे बढ़ जाते हैं।

बहुत बुरा समय देखा है अब ताकत नहीं बची है अब हमारे भीतर ।

अरे, ऐसा कुछ नहीं है देखते हैं क्या पता आगे ठीक हो जाएगा मनीष कहते हैं।

अब, अंधा क्या चाहे, दो आँखें।

मन में फिर एक आस जलने लगती है।

बोलिए आप, कल आ रहीं हैं ? 

ठीक है, अब एक दिन तो मन को समझाने दीजिए, आप कभी ना कहते हैं और आज अचानक कह रहे हैं कि आ जाएं।
मानिए बात, हमें भी वक्त लगता है और आपकी बातों से दर्द भी होता है और खुद समझ में नहीं आ रहा है कि ये हो क्या रहा है क्योंकि हम बहुत तकलीफ में हैं, सच में, संज्ञा ने कहा।

मनीष - ठीक है सोचने का समय ले लिजिएगा और देखिए अगर आ सकती हो तो।

संज्ञा - जी ठीक है ।
अच्छा, काम हो गया आपका, खाना वगैरह डिनर ?

नहीं अभी काम कर रहे हैं और फिर कुछ भूख लगेगी तो खा लेगें, शाम को आफिस में ही कुछ खा लिया था।
अभी फोन करेंगे तुम्हें, ठीक है ।

हाँ जी, ठीक है, संज्ञा कहती है और अब फोन मत कीजिएगा प्लीज।

अब आपको जब यहाँ आपके काम के लिए आना होगा तो बता दीजिएगा मै वही पहुंच जाऊँगी!
और प्लीज़ अब मैं फोन रख रही हूँ प्लीज।
और संज्ञा ने फोन काटते हुए रखती है और घुटन महसूस करती है और खुद को कोसने लगती है।
तभी दुबारा फोन की घंटी बजी तो उठा लिया और बोली।
हाँ जी....

मनीष - नहीं कुछ नहीं वो पता नहीं नेटवर्क प्राब्लम है न फोन कट गया था।

संज्ञा - नहीं मैंने काट दिया था कहा भी था फोन मत कीजिए।

क्यों ऐसा कर रही है आप, बताईये क्या करें हम?
क्या करें आपके लिए। 
फोन मत काटिए।

संज्ञा - जो कहेंगे वो कर लेंगे क्या?
अच्छा, सुनिए। अभी फोन रखिएगा प्लीज।
कल बात करते हैं कुछ गलतफहमी मुझे रही।
लेकिन गलतफहमी नहीं थी पर आप अपनी बात नहीं मानेंगे और जिद करनी हमें नहीं आती।
आपने जो समझाया है हमें समझ में आता है।
और अभी गुस्से में हम अगर हमसे कुछ गलत कहा जाएगा और बाद में हमें खुद से ही घृणा हो जाएगी कि हमने गलत तरीके से बात की।
प्लीज हमें भी संभलने का समय दे दीजिए।
जो संभव नहीं है उसमें जाने से कोई फायदा नहीं।
हम भी खुद को समझाने की कोशिश कर रहे हैं आप भी काम पर ध्यान दीजिए।

मगर फिर तभी दुबारा।
फिर फोन आता है।

संज्ञा - प्लीज हमें इरिटेड मत कीजिए।
हमें भी चीजों से निकलने में वक्त लगता है। 

मनीष - अच्छा, क्या चाहती हो, फोन न करें।

संज्ञा - प्लीज, अभी मत कीजिए। आपकी वो बात जानने के बाद कुछ अजीब सा हो गया है एक बार जरा समय दे दीजिए।
मैं खुद आप को फोन कर लूँगी। प्लीज़।

अच्छा, ठीक है, सिर्फ एक बात कहनी थी कि वो पुरानी बात थी, आपसे पहले भी शेयर किया था, 
अभी हम आपको चीट नहीं कर रहे हैं।

संज्ञा - हाँ पर हमें अभी बुरा लग रहा है, आपकी गलती नहीं है वो सब देखकर अभी हमें बहुत बुरा लग गया।
आप जानते हैं कि हमारी फीलिंग आपके लिए जैन्युन हैं।
आप हमारे लिए राह चलते इंसान नहीं है। 
सिर्फ एक दिन का समय दे दीजिए।

मनीष - ठीक है फोन रखते हैं अपना ध्यान रखना।
I did not intend to hurt you tabhi sab bata diya tha. I don't know what to say or do to make You feel better. But I am sorry...

संज्ञा - Yes, I know... I am telling you, this is not your fault, but it has affected me very much. 
Please give me some time

मनीष - ठीक है, हम परसों फोन करेंगे.. Good night Okay.
संज्ञा - जी। Thanks,  मैं वहाँ बात करके आपको बता दूँगी।
अब ये काम तो पूरा करना ही है।
Good night.

Okay.. take care.

दो दिन बाद सब पता करने के बाद हालात और मनोभावों में कुछ सोचते हुए मनीष की हालत का अंदाजा होने और कुछ ज्यादा गलत न हो जाए की आशंका के चलते उसकी बताई जगह पर पहुंच कर डरे हुए मन से उसको फोन करती है और मन में सोचते हुए कि न जाने सब कैसा होगा? 
बस एक दूसरे के प्रति विश्वास और कद्र पता नहीं किस रूप में सामने आ रहा था।

फोन पर घंटी जाने की आवाज़ आती हुई लगी तो लगा कि जैसे झपट कर फोन उठाया हो,

जी... हाँ कैसी हो आप?

ठीक हूँ, आप कैसे हैं?
एकदम ठीक।

कहाँ हैं आप, आज आपने फोन करना था जब नहीं आया तो लगा कि शायद...

अरे नहीं नहीं, हम फोन करते।
पर आज एक असांईनमेंट  आ गया था और बहुत जरूरी था आज ही सबमिट करना था।
साथ में सब थे तो सोचा कि रात में आराम से बात करते।
आज हम फोन जरूर करते।

अच्छा, अभी एक्जैकटली आप कहाँ पर हैं?

तुम आई हो क्या?
संज्ञा चुप सी पड़ गई।

मनीष - बताईये ?
संज्ञा - जी, आई हूँ 

मनीष - कहाँ पर हो?
आपके घर के रास्ते पर, नीचे ही। 

मनीष - कब आईं तुम ?

बस अभी पहुँची हूँ।

मनीष - अच्छा मुझे दो मिनट का समय दीजिए , प्लीज़।अभी काल करते हैं आपको। 

तुरंत दुबारा फोन आता है हम फ्री हो गये हैं और  संज्ञा हाँ, हूँ कहते हुए घर का रास्ता समझती रहती है। 
जी, ठीक है कहती हुई हल्के कोहरे में कार चढ़ाई में आगे बढ़ाती हुई  जाती है।
और आखिरकार बताए ठिकाने पर पहुंच जाती है।

कार का शीशा नीचे उतारते हुए पेड़ों के झुरमुट के बीच सर्द हवा में नमी के बीच अंधेरे में भी मनीष की उदास आँखों में आती हुई चमक देख ली थी संज्ञा ने और उसे संतुष्टि हुई कि उसने अभी तो ठीक किया।

कल जो भी हो आज तो जिया ही जा सकता है और इसी तरह से आगे देखा जाएगा।

इंसान जब सामने नहीं रह जाता है तब उसके लिए रोना और आज है तो उसका साथ बुरा क्यों लगता है अजीब सी उधेड़बुन में कमरे में कदम बढ़ाती है और खड़ी हो कर देखती है और आगे अंदर को जाते हुए एक दूसरे कमरे में जा कर कहती है, हाँ ठीक हैं, मैं इसमें रह जाऊँगी।
आप फिक्र मत करना।
ठीक है ये।

मनीष - चुप रहो, आओ अभी इधर बैठो, हीटर के पास, वहां फ्रीज़ हो जायेंगी आप। 

हम जरा चेंज कर के आते हैं।

और जरा देर सी में आकर कहते हैं कि आज एक काम तो अच्छा हुआ।

क्या कुछ अच्छा हुआ क्या, बड़ा प्रोजेक्ट मिला क्या?

संज्ञा को अपना हाथ मनीष ठंडे हाथ में महसूस होता है और मनीष कहते है, नहीं तुम आ गयी ये अच्छा हुआ 
Thank you...

संज्ञा आँखें उठाकर उसकी तरफ देखती है तो मनीष की आवाज सुनाई देती है ऐसे मत देखिए।
आपके लिए ये सब इमोशनल है, हमारे लिए नहीं।

और फिर से संज्ञा के दिल दिमाग में विचारों का तूफान चल पड़ता है।
आखिर क्या चाहते हैं मनीष ?

सिर भारी हो जाता है फिर भी संज्ञा यथासंभव हालात देखते हुए चुप से काम लेते हुए सुबह पूछती है कि अब कब चलेंगे?

अरे रूको अभी, कुक खाना बना रही है, खाकर फिर चलेंगे।
आज वही रहेंगे तुम्हारे पास।

अच्छा। ठीक है।

और कभी किताब कभी अखबार देखते हुए समझने की कोशिश करती रही और हल्के हल्के मनीष को असंयत होते हुए महसूस कर रही थी और पूछ ही बैठी।
क्या हुआ, are you alright?

हाँ हाँ, सब ठीक, जरा काम का टेंशन है,

तो ठीक है न, आप काम कर लिजिए, मै चलती हूँ, आपको लगेगा तो आ जाईयेगा।
कुछ असहज महसूस कर रही थी वो।
कुछ तो है जो ये कह नहीं पा रहे हैं और फिर गलत तरीके से अपनी झल्लाहट निकालेंगे।
यूँ लगता था कि जैसे वो जो तब नहीं कर पाए थे उस सबका बदला अब संज्ञा से लिया जा रहा है।

अचानक मनीष अपनी कुर्सी से उठ कर दूसरे कमरे में गये तो जरा देर में आशंकित मन से संज्ञा ने बहाने से आवाज़ देते हुए कहा कि अब तो यहां काफी सर्दी हो जाएगी न?

कोई जवाब नहीं आने पर कहती हैं कि मनीष तुम ठीक हो न?

झटके में दरवाजा खुलता है तो मनीष बदले हुए कपडों में दिखते हैं,
चलो आपको छोड़ आते हैं?

अवाक सी संज्ञा, जल्दी से बोलती है...
नहीं मुझे किसी की जरूरत नहीं, मैं जा सकती हूँ।
आई भी तो खुद हूँ न!

मैं तो आपके कहने पर रूकी हुई हूँ कि आप साथ चलने के लिए कह रहे थे और आज वही रहने के लिए कह रहे थे।

अगर सिर्फ छोड़कर आने के लिए आ रहे हैं तो वो मत कीजिए।

और मन में कहती हैं आज छोड़ ही दिया आपने।

अब मैं निश्चिंत होकर जाऊँगी कि आपको कुछ और चाहिए और ईश्वर एक बार फिर से मेरी दुआ कबूल करेंगे आपको जो चाहिए आपको वो मिल जाएगा।

पर संज्ञा नहीं।

मनीष कहते रहे कि हम आते हैं छोड़ देते हैं।

नहीं मनीष छोड़कर आने के लिए आपको नहीं आना चाहिए।

और लड़खड़ाते बैग उठाकर  थथासंभव संभलते हुए ठंड में संज्ञा ने अपने कदम बढ़ा दिए।
कदम बहुत भारी लग रहे थे। 

चढाई में सांसों का उखड़ना लाजमी था।
आगे रास्ते को पार कर जैसे ही गाड़ी में सवार होती है आंसूओं के गुबार से एकाएक दिखना बंद हो जाता है। तभी जोरों से ब्रेक लगाती हुई सामने खड़ी गाड़ी में टकराते हुए बचती है और अपना हैडब्रेक लगाती हुई अपना चश्मा हटाकर आँसूओं को पोछती हुई देखती है कि आगे जबरदस्त जाम लगा हुआ है।

तभी मनीष का फोन आया तो अब यंत्रवत फोन उठा कर हैलो कहती है।
रूकिए हम आ रहे हैं आप आगे चली गई।

नहीं, अब मैं बहुत आगे निकल गई हूँ बाजार पार कर लिया है।

जबकि वहीं पर जाम में फंसी हुई संज्ञा ने, मनीष से पहली बार इतना अच्छा झूठ बोला कि उन्होंने यकीन कर लिया।

फिर आधुनिक तकनीक के युग में एक मैसेज भेज दिया

Today you did a best job from your end.
And I really deserve this. 
Thanks

तुरंत जवाब आ गया
I am really sorry. I didn't intend to hurt. It's just that dealing with multiple issues gets so stressful and out of control.
I am sorry.

फ़र्क सिर्फ इतना ही कि मैसेज मे इस बार फूल नहीं थे! 
खैर...

इधर, शायद कहीं कोई गाड़ी फँस गई है पहाड़ी संकरी सड़क पर एक घंटे तक मनीष के घर से मात्र 100 मीटर की दूरी पर गाड़ी रास्ते से जरा हट कर बने हुए घरों की के लिए बनी पक्की पार्किंग में गाड़ी खड़ी दी।
मन में था कि कहीं मनीष न आ जाएं?

मनीष नहीं आए और संज्ञा कार के अंदर ही कुछ समय मिल गया, उड़ते से हल्के मन और शरीर से गाड़ी चलाती रही।
जैसे सब कुछ शांत हो गया।

जो अनहोनी की आशंका चलते वक़्त थी वो इस तरह सामने आई!
क्या यही था वो....

और किसने किसको कहाँ पर छोड़ दिया?
ये दोनों जान रहे थे कि फिर भी संज्ञा सोच रही थी कि आखिरी दिन अच्छा हो सकता था, बुला कर इस तरह से....? 

वो भी तो चार दिन रह कर गयी थी यहाँ से, जिसके लिए उस दिन इतनी बात को लेकर issue भी हुआ था, उससे तो मनीष का कोई रिश्ता नहीं था और आज ये सब  ?
कल तो कह रहे थे कि तुम आ गयी अच्छा हुआ। 
क्या था ये सब? 
आखिर क्यों ?

इस सबको आराम से भी तो कहा जा सकता था कि आज मैं नहीं आ सकता हूँ।
क्या कभी संज्ञा ने कोई जिद की थी... नही की थी, ख़ुद को जवाब दे रही थी वो!
वो सब उसके काबू से बाहर हो रहा था, उसकी साँसे थम सी रही थी, घुट गयी थी वो!

वही सब हो रहा था जो मनीष भी चाहते थे।

शायद अब ये एक सवाल बाकी के सवालों की तरह हर वक्त संज्ञा के जेहन में शोर मचाएगा।

मनीष इस सबको जानते हैं और फिर भी संज्ञाहीन हो गये।
और संज्ञा... संज्ञा शून्य !!! 

Unblished novel...

Friday, 27 November 2020

घुमक्कड़ी

#आत्मचिंतन #घुमम्कड़ी 

घुमक्कड़ी हमें कहीं वाह्य दुनिया में नहीं बल्कि अपने भीतर ले जाती हैं।

यात्राएं, हमें हमारे अपने ही दिल-दिमाग के गलियारों और मन के अंदर न जाने कितने परतों में बसे स्मृति पटल पर लम्हा लम्हा गुजरते हुए ले जाती हैं ! 
प्रकृति के साथ बीते लम्हों के कितनी यादों को ताजा कर देती है।
तब लगता है कि खुद के साथ कितने दिन से नहीं रहे थे । अपने साथ, दुनिया भर की बातों और किस्सों के बीच कहीं भूल गये खु़द को ।
कब से रोया नहीं था, खुद के के लिए, जब किसी ने रूलाया तो रो दिए औरों के कर्मों को खुद का मान लिया।
      कब से खुद के लिए हँसे नहीं थे , कुछ याद नहीं आ रहा कि जिसे सोचकर बरबस ही होंठों पर मुस्कान आ जाए।
हँसी खो चुके थे, सबका साथ देते देते। 
        यात्राएं और यायावरी खुद को तलाशती हैं, गहराई और स्थिरता लाती हैं।
कि आज भी लगा है कुदरत मैं और एक हो गये हैं ।
बरबस मेरी मुलाकात मेरी मुस्कान से हो गयी।

#Traveller #Strong #Explore #Tracking #Nature #Mountain #Tant #adventure #Love #Peace #Friendship #Friends #Respect #Attitude #Travelforlife #Empowerment #Instalife
#SRI #Self_Reliance_Initiative

Monday, 16 November 2020

इजाज़त

इतने पराये तो  कभी न थे, 
कि दरवाजा, मेरा तुम खट-खटाओ। 
जब इजाजत मिले, तभी तुम 
दहलीज लाँघों के अन्दर को आओ। 
दूरी का ऐसा तकाजा करो, 
कि रहकर खड़े तुम मुस्कुराओ। 
मैं आगे बढूँ जो मिलने तुमसे, 
तुम हाथ अपना आगे बढ़ाओ। 
मैं आगे बढूँ  एक कदम हक समझकर, 
तुम दो कदम पीछे हो जाओ। 
दहलीज पर हो कर खड़े फिर, 
अपना मुझे कोई  परिचय बताओ। 
तुम इतने पराये तो कभी न थे, 
कि दरवाजा मेरा तुम खट-खटाओ ।।।

❤️

Friday, 2 October 2020

स्त्री

क्यों तुझे  डर है कि तू पिघल कर न बन जाए कोई शिला

जाते जाते तुम स्त्री का स्त्रीत्व विचित्र रूप से क्यूँ ले जाते हो,
वो बनना संवारना चाहती है तो उसे अज़ीब लगता है!

तुम चाहे दुनिया से चले जाओ या यूँ ही आगे बढ़ जाओ, स्त्री को एक ठहराव दे जाते हो!

मजबूत हो जाती है वो!
उसका फोन आया , कल जाना है न..
क्या पहना जाए, मेरे पास तो कुछ रहता भी नहीं है न, आप जानते ही हो!

स्वयं जूझते हुए आगे बढ़ गयी तो क्या यहाँ तो हजारों लड़कियां अपनी अंदर की लड़ाई लड़ रही हैं।

कहा कि साड़ी पहन लो या अच्छा सा लॉंग कुर्ता, जीन और कुछ फंकी ज्वैलरी ।

कहते ही वह आश्चर्य मिश्रित रूप से ऊहापोह की स्थिति में आ गयी वो।

क्यों... क्या सजना संवरना नहीं चाहती है वो.?
उसकी आशाएं जिंदा है अभी। 

चाहती है, पर उसने जिसे आधार मान लिया था वो बीच रास्ते में उसका हाथ छुड़ा कर सदा के लिए उसे अकेला करके चला गया।

जूझना पड़ा उसे हालातों से, अपनी भावनाओं से अब बमुश्किल होश आया है उसे तो पहला शब्द था कि हाँ आगे बढ़ना चाहती है वो।

अब मन बनाया है लेकिन अब उसे, उसके जैसा कोई नहीं चाहिये जिससे वो सबसे ज्यादा प्रभावित थी, दिलोजां से चाहती थी।

सोच रही हूँ कि कैसा प्यार था कि जिसके बिना रह नहीं सकती अब भी यादों में है उसी के जैसा कोई भी नहीं चाहिए।
सिर्फ़ आदत हो गई थी उस घुटन में रहने की। 
अंदर तक प्रेम के बहाने उसी प्रेमी के द्वारा उसके कुचले, दबे अहसासों से अब तक डरी हुई है वो ,
हाँ, समझ में आती है उसकी बात।

और अपने से, अपनों से, परायों से लड़ते- लड़ते, लिहाज़ करते, समाज की मर्यादा निभाने की कोशिश उसे मर्दाना ही तो बना दिया इन परिस्थितियों ने।

लड़ रही है वो।
कोशिश मत कर, बस हो जाने दे जो हो रहा है।
बह जा हवा के साथ।

कष्ट अवश्यंभावी है, पर पीड़ित होना स्वेच्छा पर निर्भर है।
तेरा स्त्रीत्व ही तेरा अस्तित्व है।                             
                 "तनु " 3/9/2019

Wednesday, 16 September 2020

#लम्हा

वो बस एक लम्हे का झगड़ा था
दर-ओ-दीवार पे ऐसे छनाके से गिरी आवाज़
जैसे काँच गिरता है। 
हर एक शय में गई, 
उड़ती हुई, चलती हुई, किरचें
नज़र में, बात में, लहजे में,
सोच और साँस के अन्दर
लहू होना था इक रिश्ते का
सो वो हो गया उस दिन
उसी आवाज़ के टुकड़े उठा के फर्श से उस शब
किसी ने काट ली नब्जें
न की आवाज़ तक कुछ भी
कि कोई जाग न जाए
बस एक लम्हे का झगड़ा था !

Friday, 4 September 2020

पाना /खोना

#गुमशुदा_की_तलाश

#अनकही 

बचपन में एक बार शिमला जाने का मौका मिला!
शिमला जाना था, कुछ नया कपड़ा होना चाहिए तो डैडी जी ने बुआजी को कुछ पैसे दिए और मेरे लिए कपड़े लाने के लिए कहा!
दोपहर की चाय पीने के बाद बुआजी ने बाजार जाने के लिए तैयार होने के लिए कहा।

तब सिटी बस चला करती थी।
इतना याद है कि चवन्नी अठन्नी में टिकट आ जाते थे।

रोड पार करके गौला गेट के चौराहे पर सिटी बस पकड़ने के लिए खड़े हो गए।
बस आई, आराम से बस में जगह मिल गई कोई अफरा-तफरी नहीं।

कालाढूंगी चौराहे पर बस रूका करती थी और आराम से सब सवारी उतरती और चढ़ती थी।
हम भी उतर कर कमल स्वीट हाउस वाली गली में से होते हुए कपड़े वाली गली में बढ़ने लगे।

वहां आर.के. क्लाथ हाउस से प्रसिद्ध दुकान हुआ करती है ।
उसमें जाकर दो तीन फ्रॉक और जींस टी शर्ट आदि ले लिए गए।
सारे कपड़ों में सबसे ज्यादा नेवी ब्लू कलर का सुंदर सा एक फ्राक हमें पसंद आया।

शिमला जाने का दिन भी आ गया और जब भी कहीं जाना होता था तो वही फ्राक पहना करते।
डांट भी पड़ती थी कि बाकी के कपड़े क्यों नहीं पहनती हो।

सेकेंड क्लास का रिजल्ट आ गया अच्छे नंबर से पास हो गए तो जाने के लिए कोई रोक नहीं लगी !

शिमला जाने का दिन भी आ गया, दादी (ईजा) जोर से पकड़ कर कहने लगी, मत जा, मैं अपने बाबू के बगैर कैसे रहूँगी।
मुझे बाघ उठा ले गया तो आकर किससे "ईजा " कहेगी तू।

कई तरह से दिमाग में इतना जोर पड़ गया कि आवाज ही नहीं निकलती थी।
बस अपने हाथों से उनके आंसू पोछ रही थी और मन मे होता कि मत भेजो।
पर बोलना नहीं निकलता था।

पता नहीं डर था या लगता था कि बड़े लोग सब समझ जाते हैं।
नहीं भेजेंगे।
मुझे पता नहीं था कि मैं क्यों जा रही हूँ या जाना चाहती हूं या नहीं। 

खैर कई तरह के जाने या न जाने के दवाब के बीच कब जीप में बैठी सामान रखा जाने लगा और डैडी जी ने रोडवेज स्टेशन छोड़ दिया।
बस ढ़ूढ कर सब यंत्रवत बस में बैठ गए। 
बस चलने लगी आवाज आई अभी रूदरपुर आएगा।

फिर आधी रात में पता चला कि चंडीगढ़ में हैं।
फिर भोर में शिमला।

कड़कती ठंडी में अंधेरे में ढलान पर पैदल उतरते हुए एक बरामदे में दाखिल हुए।
बहुत बड़ा दोमंजिला लम्बाई में बना हुआ लकड़ी का घर था, मैं बार बार कहीं टकरा जा रही थी, लकड़ी का घर था जोर की आवाज़ आती।
और फुफाजी ने ताला खोला, सभी एक एक कर 
अंदर दाखिल हुए। दरवाजे के पास ही स्कूटर लगा हुआ था और उसके किनारे से सामान अंदर को ढकेलते हुए जाना था।
खैर अंदर पहुंच कर दिवार पर हाथ मार कर बिजली का बटन दबाया।
और रोशनी हो गई।
अब मन में जो खाका तैयार था ये सब उससे अलग था।
होना ही था आज भी यही होता है जो डिजाइन मन में होता है उसके जैसा कहाँ कब होता है।

सुबह सबसे पहले पडोस में रहने वाली "बेबे" आई!
सफेद रूई की कोमल रस्सी जैसे बाल।
तेल लगा कर कस कर पीछे को बाँधे हुए।
चलने में कुछ लचक।
आते हुए बोली 
और विमला, कितने दिन लगा दिए मायके में।
हमारी याद नहीं न आई तैनू।

और ए कौन?
ईन्नी छोटी कुड़ी, कित्थे नु चक के लै आई तू ऐनु।

बुआजी हँसते हुए बोली।
मेरे भाई की बिटिया है।
आजकल छुट्टी थी तो साथ में ले आई।
अब इसकी माँ या बाप आयेंगे दो महीने बाद।
स्कूल खुलने पर इसे ले जाएंगे।

बाकी कुछ सुना या नहीं सिर्फ ये समझ में आया कि इसकी माँ आएगी इसे वापस ले जाने के लिए।

तब से पूरे दो महीने गुमशुदा की तलाश प्रोग्राम देख कर काटे।
डर लगता था कि कहीं बुआजी डांट लगाएंगे कि क्या देखती है, या फिर कभी टीवी ऑन न हो तो कैसे होगा, हर रोज मन में भय रहता था कि अगर आज टीवी ऑन नहीं होगा और मम्मी की फोटो आई, पता नहीं चलेगा तो क्या होगा! 
हर दिन शाम के साढ़े छह बजे का इंतजार रहता कि गुमशुदा की तलाश में मम्मी की फोटो आएगी।
क्योंकि मम्मी ने शिमला नहीं देखा था और वो कहीं खो जाएगी।
क्या बेवकूफ़ लड़की हुआ करती थी तब।

लेकिन अब कुछ तो खो ही गया है !!!

Thursday, 27 August 2020

परछाई

#परछाईं... 
---------
पीठ पर प्रखर सूर्य से.. 
लंबवत् बढती परछाईं.. 
नाप चुकी, गाँव, शहर, मैदान, सागर..
और आकाशगंगाओं के वृहदतम आकार.. 
युगों से घोर कृष्ण..। 
अविरत पीठ जलाता सूर्य.. 
भूल चुका पश्चिम अवरोहण...।
लौटकर अवश्य.. 
अपने अँतिम वृत्त पर करेगी पूर्ण ग्रहण.. 
सूर्य..,निगल लेगी तुम्हें.. 
अँततः.. 
तुम्हारें ताप के लंबवत्.. 
अवरोध सी बढती परछाईं मेंरी...।
                           "तनु"  20/08/2015

आते जाते

#यादें 
यू तो हर रोज सर्दी /गर्मियों की तरह आती जाती तुम्हारी यादें 
ये तो यादें हैं जो मेरे अख्तियार में है कि आती है! काश तुम भी होते।।। 
दर्द हो तो /खुशी हो तो /
तुम भी मेरे अख्तियार में होते तो बाँध ही लेती तुम्हें भी/
ताबीज बना के पहन लेती। 
क्या क्या जतन करे मैंने कि तुम मेरे रहो /पीर/फकीर, गंडे-ताबीज, खुदा-भगवान।  
कहते हैं कि रूक जाते हैं जाने वाले,
पर तुम तो रोकने वाले के ही बुलावे पर थे। 
सोने की कोशिश करती हूं कि मेरे ख्वाबों में आती तुम्हारी तस्वीर, हल्की खुली आँखों से तुम्हें महसूस करती हूं फिर कस के आँखे बंद करती हूँ कि गुम ना हो जाओ कहीं। 
क्या सच में कभी तुम्हें देख पाऊँगी, वहम भी क्या है कि तुम आज भी मेरी रूह में समाये हो। महसूस होते हो, साथ में।।। 
लोग कहते हैं कि ना याद करो जाने वाले को, कोई बताओ कैसे समझा सकते हो/ 
खुदा मेरे, तेरा दिया दर्द शिद्दत से संभाले हूँ मैं। 
जीते जी भी तो लोग जाते हैं, एक उम्मीद छोड़ कर,कि फिर मिलेंगे कभी। 
दूर से लोगों को तकती हूँ, कि तुम होते तो शायद ऐसे होते, तुम ये करते, तुम वो करते। 
पर तुम..... 
बस तुम और तुम। 
तुम्हें पता है कि किस कदर दर्द के अंधेरों में घुट गई है सांसे ये
क्या तुम मिलोगे कभी?

Monday, 17 August 2020

लड़का हुआ है।।।

लड़का /लड़की

लाली के पांच सौ रुपये ...

लाली के ससुराल वालों ने लाली से विनती की, लाली अपने मायके चले जा, वहाँ तेरी अच्छी देखभाल हो जायगी!

वहाँ अस्पताल है, तेरे माँ बाप तुझे अस्पताल दिखा लेंगे, ये पहाड़ है, अस्पताल भी पास नहीं ।
जब तब बरखा हो जाती है और बरफ गिरती है।
पाला पड़ता है रास्ते फिसलन वाले हैं।
तू मान अपने माँ बाप के घर चले जा।

लाली सोच में पड़ गयी....
कैसे अम्मा - बाबाजी के सामने जाएगी।
कैसे जवान भाई से बात करेगी ?
अनुशासन से भरपूर घर ! 

लाली सोचती रही और पति ने लाली को उसके अम्मा बाबा के घर छोड़ दिया और आगे नौकरी में चला गया।

पाँच महीने का बच्चा पल रहा था, लाली किसी तरह अपने को ढक छोप कर रखने की भरपूर कोशिश करती।

हर महीने डाक्टर के पास जाना होता।
डाक्टर अल्ट्रासाउंड बताते, पर लाली किससे बताए ?

हफ्ते - दो हफ्ते में लाली के पति का फोन आता, तब लाली शाल ओढ़े फोन तक जाती और अपनी पूरी बात बताती।

लाली इस तरफ़ नमस्ते हाँ - हूँ में जवाब दे रही होती तो कोई कुछ समझ नहीं पाता या किसी को कुछ समझना ही नहीं था।
अल्ट्रासाउंड तीन सौ रुपये से लेकर सात सौ तक का होता था तो पति समझा देता कि अल्ट्रावायलेट किरणें होती है जो बच्चे को नुकसान पहुंचा देती हैं, डाक्टर का क्या है वो तो पैसा बनाने के लिए कहते हैं।

ठीक है ध्यान रखना के साथ फोन का क्रेडिल रख दिया था।

सुबह लाली पोस्ट आफिस जाती है और बचपन से ही लाली के लिए बनाए अकाउंट से दादी अम्मा के जमा किए हुए पैसे निकाल कर शहर के बड़े अस्पताल में साढ़े तीन सौ रुपये का अल्ट्रासाउंड कराती है !

तब रिपोर्ट देखकर तब डाक्टर बताते हैं कि दाँयी ओर बच्चे का सिर अटका हुआ है कोशिश करना कि बांयी करवट ही लेटो।
और ये दवाई लो।
खाने में एहतियात रखो।
अंडा - दूध, फल खाओ।

हूँ - हाँ करती हुई केबिन से बाहर आकर साढ़े सात सौ रुपये की दवाई लेती है और घर आ जाती है।

घर पहुंचते ही अम्मा का बोलना शुरू।
कहाँ गयी थी और तेरे ससुराल वाले हमें खा जाएंगे।
क्या है तेरे हाथ में, ला दिखा।
लाली ने झट हाथ पीछे किया और लबरड़ते हुए उस कमरे से अंदर को जाते हुए आगे बढ़ गयी।

अम्माँ की आवाज़ आ रही थी, अरे आजकल के डाक्टर झूठ बोलते हैं।
उन्हें अपना अस्पताल चलाना होता है।
हमारे तो सारे बच्चे घर में हुए, कौन था हमें देखने वाला।

लाली का सिर दर्द से फटा जा रहा था कि कैसे उसके ससुराल वालों ने उसे उसके घर भेज दिया।
लेकिन लड़कियों के लिए कहीं कोई ठिकाना नहीं है।

अचानक एक दिन अम्मा जी के तेज दर्द उठा अस्पताल में भर्ती कराया गया तो पता चला कि पित्त की थैली निकालने का आपरेशन होगा। उसमें बहुत पथरिया जमा हो गयी हैं।

लाली के भाई ने आनन फानन में सब इंतजाम कर दिया और कह रहे थे कि अभी साथ में लाली है आपरेशन करा लो अम्मा।
बाद में दिक्कत आ जाएगी, अभी ये तुम्हारी देखभाल हो जाएगी।

और चटपट आपरेशन हो गया।

डाक्टर चैकअप करने आते तो लगे हाथ लाली को भी ताकीद कर जाते।
बिटिया वजन कंट्रोल कर लो अभी से इतना मोटापा अच्छा नहीं
लाली को सातवाँ महीना लग चुका था और वो शर्म से सकुचा जाती।
कह नहीं पाती कि वो प्रेगनेंट है।

अम्मा की सेवा करने में उसके प्राण कंठ में अटक जाते।
अम्मा कपड़े बदलना, चादर बदलने के लिए अम्मा नर्स को झिड़क देती क्योंकि नर्स का तो रोज़ का ही काम है वो क्यों अम्मा पर नरमी बरते।

अम्मा मना कर देती और फिर सब काम लाली को करना होता।

भाई भी आता तो कहता, हाँ लाली जीज्जी घूमने जाया करो सच में कुछ वजन बढ़ रहा है तुम्हारा।

लाली कुछ काम के बहाने अम्मा की बेड के पास नीचे बैठ जाती और बैग में कुछ खटर पटर करते रहती।

किसी तरह से सात दिन के बाद डाक्टर ने डिस्चार्ज कर दिया और अम्मा जी अपने महल में आप गयी।

इधर दादी माँ की हालत नाजुक सी हो रही थी।
दो तीन साल से बीमार होती और ठीक हो जाती।
दादी को लाली की औलाद देखने की बड़ी इच्छा थी।
मेरी लाली का पोता अपने गोद में रखूंगी और सोने की सीढ़ी पैर में बंधवा कर जाऊँगी।
खैर दादी पोते के आने से एक महीना पहले ही चली गई।
और एक बार लाली फिर तमाशाईओं के बीच फंस गई।
लोगों का आना जाना लगा रहता।
वो कभी किसी को चाय देती किसी को पीठ के पीछे लगाने के लिए तकिया।
रात में रूकने वाले मेहमानों के लिए इंतजाम।
किसी का खाना, किसी का नाश्ता।
कभी कुछ - कभी कुछ।

सिर्फ़ अपने अम्मा बाबा की इज्जत रखने के लिए सब सहन करते रही।
जहाँ चाहा , ब्याह दिया, जिसने जब चाहा उस हिसाब से बिसात बिछा दी।

आगे फिर समय के साथ....

अचानक लाली को दर्द उठा तो उसने अपनी माँ से कहा तो माँ ने टाल दिया, अरे नहीं ऐसा नहीं होता है।

तब तो बहुत जोर का दर्द होता है तुझे क्या पता।

उसने माँ की ओर देखा और अच्छा कहते हुए लाली उठ कर छत पर आ गई और टहलने लगी और दर्द को आत्मसात करने की कोशिश करने लगी।

हाँ, सही तो कह रही थी अम्मा,
आख़िर लाली को दर्द का क्या पता ? 

उसे तो कभी दर्द का अह्सास हो ही नहीं सकता था उसने तो सहन करना सीखा था।

लाली को दर्द से छुटकारा नहीं मिल रहा था तो उसने अम्मा के पास आकर कहा, अच्छा अम्मा हम अस्पताल जाकर आते हैं और देर हो जाए तो आप सरकारी अस्पताल आ जाना।

पागल हो गयी है क्या, बहुत अपने मन की हो गयी हो लाली, चुपचाप घर में बैठो।

तभी एक फोन आया और लाली को पुकारा गया तो लाली आ गयी। 

लाली अपने सुंदर से कालेज के खादी के बैग में गाऊन डाल रही थी और जल्दी से दो गाऊन बैग के हवाले करते हुए फोन उठाया।

दूसरी ओर से लाली की ननद जी बोल रही थी। 

लाली ने जल्दी से नमस्ते करते हुए कहा कि वो अस्पताल जा रही है, इस समय उसे यही सही लग रहा है।

क्योंकि घर में सब बड़े - बहुत बड़े हैं और हम उनसे कुछ नहीं समझा सकते।

डाक्टर ने जो तारीख दी है वो या तो दस दिन इधर है या उधर।

और जिज्जी हमें बहुत तकलीफ हो रही है।
वैसे भी बच्चा सुरक्षित होगा हमें तो भरोसा भी नहीं है। 
क्योंकि आपके भैया बहुत हाथ अजमाए हैं हम पर।

अच्छा रखती हैं।
अब जो भी हो।

लाली अस्पताल पहुँची तो सरकारी डाक्टरनी ने साथ में कौन है पूछा तो लाली ने चट से पाँच सौ रुपये डाक्टरनी को थमा दिए।
डाक्टरनी साहिबा समझ गयीं।

तब के पाँच सौ रुपये आज के पाँच हजार रुपये।

मैडम ने चुपचाप रूपये थामे और सफेद कोट की जेब में रख लिया और नयी लड़कियों को बुलाकर स्ट्रेचर मँगाया और लाली को कपड़े बदलने का आदेश देते हुए कमरे में भिजवा दिया।
तभी लाली ने अपने पैरों पर पानी रिसता हुआ महसूस किया और वो नर्स से बोली, देखो ये क्या हो रहा है ?

एक नर्स आयी उसने लाली का चैकअप किया और बोली, बच्चे का वॉटर बैग लीक होने लगा है, 
हाँ, डिलीवरी अभी हो सकती है।
आप... आओ जल्दी!

दर्द बढ़ाने के लिए इंजेक्शन दे दिया।
लाली के हाथ में बेड के सिरहाने में लगी रॉड थमा दिया।
और लाली चुप्पी साध कर कसमसाने लगी।

तभी "आया अम्मा " आयीं और कहती है बेटा तुम कुछ बोल क्यों नहीं रही हो?

तुम्हारा बच्चा गिरने वाला है।
लाली को कुछ समझ में नहीं आया और आँखों के कोनों से आसूँओ की धार बहने लगी।

और बोली... आया अम्माँ, हमसे चींखा नहीं जाएगा।
प्लीज आप कुछ करो।

हमें जोर से चिल्लाना नहीं आता।
सुना है कि दर्द होने पर डाक्टरनी और नर्सें डाँटती है।

आया अम्मा झपट कर बाहर भागी और लगभग दौड़ाते हुए डाक्टरनी मोंगा जी को ले आई।

डाक्टर के आते ही दो मिनट में बच्चा हो गया और सारे कमरे में सन्नाटा था।
सब खुसर पुसर कर रहे थे कि ये तो चूँ भी नहीं बोली ।
हमें तो लगा कि मर गयी है।

जरा देर के बाद लाली ने अपने कपड़े समेटने की कोशिश की जिसको देखकर आया अम्मा को लाली को देखकर सहानुभूति हो आई।
उन्होंने लाली के माथे पर अपना कोमल हाथ फेरा। लाली को कपड़े संभालने के लिए मदद की और प्रशंसा में बोली इसे कहते हैं लोक लाज रखना।
लाली ने आया अम्मा की मदद से खुद को संभाला और एक स्ट्रेचर से दूसरे स्ट्रेचर में आ गयी।
उसे एक साधारण से कमरे में लाया गया जहां अन्य  बेडों पर कई स्त्रियां थी।

उन्हें देखकर लाली का मन घबरा गया कि तभी उसने कमरे में खुलने वाली खिड़की से देखा कि उसकी सहेली चली आ रही है और कुछ मिनटों में वो पता करते हुए कमरे में पहुंच गयी।
आते ही उसने ताना दिया, बता तो देती।
डाक्टरनी तुम्हारी बहुत तारिफ कर रहे थे, क्या किया तुमने ? 
अच्छा....

हमने बताया था लेकिन किसी ने सुना नहीं।

वो चुप हो गयी, अच्छा लो, हम तुम्हारे लिए लिए दलिया लाए हैं, ये खाओ ।
तुम्हें भूख लगी होगी, इससे आराम मिलेगा।
और सुनो डिलीवरी तुम्हारी ही हुई है न तुम तो इतने आराम से बैठी हो ।

लाली ने हल्के से कहा, नहीं हमें बहुत दर्द है!
लेकिन किसको बताएं ?
इसलिए चुप  हैं। 
तुम हमें घर ले जाने का पूछो न, यहाँ बहुत घबराहट होती है।

अच्छा तुम्हारे भाई से बात करते हैं।
मान जाए तो।
लाली बोली... नहीं जाने दो, उनसे न कहो।

तब तक लाली की अम्मा जी भी आ गयी।
अचानक अस्पताल में चहल पहल हो गयी।

अचानक मिठाई - पेस्ट्री आदि बंटने लगे।
नर्सों की जेब में पैसे ठूंसे जाने लगे।

अब लाली के मायके आए का नाम तो रखना हुआ न और अम्मा की आवाज़ आती हुई सुनाई देती है कि....
लाली की अम्माँ एक रौ में बोलते हुए कह रहीं थीं, मैं तो डर गई थी, जब बच्चे के रोने की आवाज़ आई!
किसी ने पूछा क्यों ?
अरे बहुत पतली आवाज में रोया बच्चा, तो हमें लगा कि "लड़की "हो गयी है, हमारा तो कलेजा धक हो गया था।
अच्छा हुआ कि लड़का हुआ और हम भी पाप ग्रह से बचे। 
हम कल ही  बारह सौ रुपये के पुराने बर्तन बेचे थे अब वही काम आ गये।
नेपथ्य से आवाज़े आती जा रही थी। 

लाली को अन्दर से बरबस जोर से हँसी आ गयी, मन में सोच रही थी बेचारे करोड़पति लोग कितने गरीब हैं ये...
बर्तन बेच कर नाती जनवाएंगे ।।।
इन्हें समझ में भी आता है कि क्या कह रही हैं ये ? 

फिर लाली ने अपने बच्चे की ओर देखा फिर उसकी बारीक सी सफेद उँगली पकड़ कर धीरे धीरे से सहलाती है। 

लाली की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी, शुक्र है तुम सही सलामत हो बच्चे। 
खुशी के आँसू और खुद की डिलीवरी...

अब क्रम से होने वाली एक मानसिक पीड़ा का अन्त हुआ है ।
और अब आगे जो होगा देखा जाएगा।

लाली को अब तक ये समझ में आ ही गया था कि उसका ब्याह मात्र  ऐसे हाड़ मांस के आदमी के साथ हुआ है जिसकी सभी इंद्रियां मौजूद हैं लेकिन उसके अंदर आत्मा नहीं है !

न मायके वालों को उसकी या उसके बच्चे की फिक्र है न ससुराल वालों को।
सभी को अपने से मतलब था कि कोई हमें न नाम रख दे, कि हमने नहीं देखा !

लाली के दर्द से किसी को कोई मतलब नहीं था।
हाँ - लाली को पाँच सौ रुपये का लड़का पैदा हुआ, उस बच्चे ने तो लाली को कम ही परेशान किया...

है न ?
कम से कम लाली यही सोचती है।

Monday, 18 May 2020

लम्बा सफर

आशा काम से घर आती है, कार से उतर कर बरामदे में देखती है कि वहाँ माँ बैठी हुई है और साथ में पड़ोस की आँटी भी बैठी हुई है।

आँटी कहती हैं, आशा बैठो बेटा, आपसे तो मिलना ही नहीं होता है।
जब तक हम घर में काम निपटारा करते हैं आप चले जाते हो।
और सुनाओ कैसा चल रहा है सब।

सब ठीक है आँटी।
कामकाज भी ठीक है जितना खोदो उतना पियो।
आजकल मार्केट ठंडा पड़ गया है, 

हाँ बिटिया तुम्हारे अंकल भी यही कहते हैं। बाजार में ग्राहकों की कमी आ रही है और दुकान पर बहुत कम लोग आते हैं।
कभी कभी तो पूरा दिन यूँ ही निकल जाता है।

आशा बैठकर सामने रखी मेज पर बोतल देखते हुए पूछती है, माँ ये पानी ठीक है।
वो हाँ कहते हुए कहती है अभी लाई हूँ, साफ है।
आशा पानी पीती है।
तभी माँ कहती हैं कि आज गीता का फोन आया था।
आशा पानी गटकते हुए पूछती है कौन गीता?

अपने आसपास गीता भी तो बहुत हैं।

अरे मूलचंद की बेटी जिसे तूने अपने साथ काम पर भी रखवाया था।
कह भी रही थी कि मुझे तो दीदी ने बचा लिया था आँटी , नहीं तो पता नहीं मेरा क्या हाल होता।
मेरी बहन यमुना वही फँस गई और बेचारी आज भी अपनी जिंदगी को रो रही है।

आशा को याद आ गया तो बोली, 
ओह अच्छा, वो नेपाल वाले।
अब ठीक है वो ?

हाँ, वो तो ठीक है पर उसकी बहन के साथ गलत हो गया उसके ससुराल वाले उसके दो लड़कों को ले गए और लड़की को छोड़ गये।

आगे माँ बोली, मैंने कहा उसको, लड़की को साथ में क्यों रखा उसको भी भेज देना था, क्या चाहिए वो लड़की।

आशा की पहले ही विचारों को लेकर अपने घर में सबसे कम ही पटती थी और अचानक इस बात ने उसे फिर से व्यथित कर दिया तो वो बोल उठी - क्यों लड़की क्यों जाती सिर्फ इसलिए कि वो लड़की है।
और आपको पता है न, कि वो लोग लड़कियों के साथ क्या करते हैं।

आँटी तुरंत बोली क्यों क्या हुआ था आप अपना दिमाग खराब मत करो बेटा, जाओ अंदर जाओ।

आशा बोली, बात अंदर जाने की नहीं है आँटी।
मैं तो अंदर चले जाऊँगी लेकिन ये क्यों इस तरह की बातें करते हैं क्यों लड़कियों के प्रति भेदभाव रखते हैं जबकि इनको पता है कि वो वैश्यालय चलाते हैं।
क्या होगा उस बच्ची के साथ ये अच्छे  से जानतीं हैं ।

तब कैसे गीता को पुलिस की मदद से बचाया मैं आपको बता नहीं सकती हूँ।

एक बार पूरा चलचित्र की भाँति उसकी आँखो के आगे घूम गया।

कैसे उसने गीता को बचाया था, साँसें अटक गई थी आशा की इस जद्दोजहद में।

यू पी से दो जीप भर कर मोटे साँड जैसे मुस्टंडे आए थे उसकी ननद के साथ।

सुबह चार बजे उसने गेट पर घंटी बजाई इत्तेफाक से उस दिन मैं घर में थी।
मैंने ही चैनल गेट खोला।

तो वो दुबली-पतली सी आशा के सामने बैठकर पैरों में लिपट गई थी कि दीदी मुझे बचा लो।
आशा ने तो उसको पहचाना भी नहीं उठा कर देखा तो गीता।

अरे क्या हो गया तुझे तेरी तो शादी हो गई थी न।
तू यहाँ कैसे ?
अच्छा चल चल अंदर चल, यहां बहुत ठंड है।
कितनी तेज हवा चल रही है और कहते हुए आशा ने अपना शॉल गीता के ऊपर डाल दिया।
वो रेशमी पीले रंग के  मुचड़े से सूट में और भी पीलिया की मरीज लग रही थी।

अंदर आकर उसने बताया कि शादी नहीं दीदी, भाई उसे हरिद्वार शादी में ले गया था और शराब पीने के बाद 3000 रुपये में उसको बेच आया था।
अब शादी कहो या जो भी।

हमारे यहाँ लड़की के घरवालों को लड़के वाले पैसे देते हैं दीदी, गीता बता रही थी। 

तो तूने मना क्यों नहीं किया?

उसने आशा की ओर देखा, आशा की नजरों ने उसके अंदर झांका तो अपना ही सवाल बेमानी लगा।

अपनी शादी के लिए आशा भी तो मना नहीं कर पाई थी। घरवालों के आगे 18 /19 साल की उम्र की लड़की की कहाँ चलती है।

फिर आशा को याद आया, पर तेरी शादी तो तेरे पापा उस बड़े उम्र के बिहारी से कर चुके थे न।

कैसे लोग हैं ये?

हाँ दीदी, आप तो बाहर ही रहते हैं न आपको पता नही है मैं वहाँ से आ गई थी वो भी बहुत मारपीट करता था।
बाहर नल से पानी लाना होता था तब भी मारता था और गलत शक करता था।

क्यों उसके घर में पानी का नल भी नहीं था तो क्या देखकर शादी की तेरी।

उसने भी पापा को तीस हजार रुपये दिये थे।
वो तो किराये के मकान में रहता था वैसे बिहार का था वो, यहां रेता बजरी का काम करता था लेबरों का ठेकेदार।
और उम्र में बहुत बड़ा था वो।
एक दिन उसने मारा, बहुत चोट लगी थी तो मैं वापस आ गयी ।

आशा की आँखें आश्चर्य से फैली रह गई, मतलब तुझे तेरे पापा ने भी बेचा था.....

आशा बड़बड़ाने लगी... 
अरे, जब घर में ही ऐसा है तो बाहर कैसे बचोगे भई।

तब आशा सुबह जल्दी नहा तैयार होकर उसे 5 बजे ही पुलिस थाने ले गई और एस ओ साहब को फोन किया वो भी जल्दबाजी में चौकी पहुंच गये।
आशा कृतज्ञता से भर उठी उनका धन्यवाद करते हुए खान साहब को सारी बातें बताने लगी ।

सारी बातें सुनकर अनुभवी एस ओ बोले अभी तो मैं आपकी मदद कर देता हूँ लेकिन ये फिर से ऐसा होगा।
आप या तो इसको अपने साथ रखिये या फिर इसको अपने घर को छोड़कर जाना चाहिए।
इसके बाप को मैं पहचानता हूँ।
खाने की रेहड़ी लगाता है और दारुबाजी में रहता है।

आशा कुछ देर सोच में पड़ गयी और जल्द से फैसला लेते हुए बोली, ठीक है मैं इसे अपने साथ ले जाऊँगी वहीं संस्थान में कुछ काम मिल जाएगा इसे।
आप फिलहाल इसकी मदद करें।

एस ओ साहब ने अपने मातहतों को आदेश दिया और जीप भेज दी।
कुछ देर में उन लोगों ने आकर रिपोर्ट दी कि, सर...
भगा दिया सबको।
आशा, गीता के साथ चौकी पर ही बैठी थी।
तब तक एस ओ साहब ने एक दो फोन भी अटैंड किए।

सिपाहियों के आ जाने के बाद एस ओ साहब बोले कि मैडम मैं आपको अच्छे से जानता हूँ इसलिए आपके एक फोन पर सोया था यूंही उठकर आ गया था।
आशा ने देखा कि उनके बाल भी यूँ ही अस्तव्यस्त हैं।

वास्तव में सुबह पांच बजे तो सब सोए ही होते हैं।
इस बात का आभास तो था ही, और कृतज्ञता से भर उठी आशा और हाथ जोड़कर धन्यवाद कहा तो वो बोले, नहीं इस सबकी जरूरत नहीं आप अपना भी ख्याल रखियेगा।
वो लोग खतरनाक है।
आपके सामने मुझे ये जो दो फोन आए थे ऊपर से थे।
काफी इन्फुलेएंस लोग हैं, मजबूरी है, क्या कहें हम पुलिस की नौकरी कर रहे हैं लेकिन बदमाशी हर जगह है।

इसके ससुराल वालों ने उन लोगों को अच्छी सर्विस दे रखी है। अफसरों के फोन आ रहे थे।

आशा ने गीता की ओर देखा वो बोली हाँ दी, सब लोग आते हैं वहाँ।

मुझे भी वही काम करने के लिए कह रहे थे तभी मैं दो दिन से किसी तरह से भाग कर आ गयी हूँ।
मेरी हालत बहुत खराब हो गई है।
आशा अजीब सी स्थिति में आ गई। शर्मिदगीं देने वाली बातें सुनकर आशा, एस ओ साहब से नज़रें भी मिलाने के लिए झिझक महसूस कर रही थी।

अच्छा सर, हाथ जोड़कर, थैंक्यू कहते हुए तेजी से पलटने के बाद अपनी गाड़ी की तरफ बढ़ती गई।

गीता भी लगभग दौड़ती हुई पीछे से आ कर गाड़ी में पीछे बैठ गयी।

आगे आकर बैठ, आशा ने कहा।
गीता चुपचाप आगे आ गयी।

तूने बताया नहीं कि तेरे साथ क्या हुआ था ?
बता रही थी दी, आप बातचीत में कम ध्यान देते हैं न।
आंटी जी ने सुना था।

खैर, चल अब.... क्या करना है ?

गीता बोली - दीदी जी, ये लोग तो फिर आ जाएंगे।
आशा गाड़ी चलाते हुए बोली, मेरे साथ चलेगी ?

कुछ कैंटीन की किचन में काम मिल जाएगा।

हाँ दीदी मुझे आप ले जाओ।
घर वालों में कोई भरोसा नहीं है मुझे।
यहाँ मुझे डर लगता है, ये फिर से कहीं मुझे ....

आशा ने गीता का वाक्य पूरा नहीं होने दिया...

ठीक है, चलो...
बैठो गाड़ी में, 
बहुत दूर जाना है अभी...

तनुजा जोशी ।

चित्र - गूगल साभार

Saturday, 25 April 2020

तुम भी तो नारी हो... #माँ

ओह, लड़की हुई है...

पानी के ड्रम में डाल दो, वो बता रही थी कि दादा कह रहे थे।

वो आज तक सोच रही...
कि दादा ने कभी ड्रम में डाला तो नहीं।

वहीं एक ओर 
बच्ची रात में रोती है तो दादा दरवाजे पर पहरा देते हैं कि वो बच्ची को चिकोटी न मार सके क्योंकि बच्ची की रातों में रोने की आवाज़ आती है। बच्ची को उसकी बूढ़ी दादी अपना स्तनपान कराती है दादी ममता से भरी हुई है और बच्ची भूखी ।

और, और क्या वो पानी के ड्रम वाली बात सच थी ?

तुम भी तो नारी हो #माँ

Picture Curtsey - Google

मौन आकर्षण








Friday, 10 April 2020

मधु

चाहे जितना सुख मिलता है 
शहद में डूबी उँगलियों को चाटने में
कड़वाहट उतनी ही होती है
(मधुमक्खियों) के घर के उजड़ जाने की।

अपनी प्रेमिकाओं को भेजे पहले संदेश से, दुनिया के तमाम प्रेमियों के द्वारा
बटोर लिया जाता है शहद 
कि जितना रस, दुनिया के तमाम फूलों में भी नहीं होता ।

एक अकेला पेड़ रह जाएगा
इस सृष्टि के विनाश के बाद। 
जिसके ऊपर मधुमखियों का छत्ता है,
और उसमें मौजूद है इतना शहद, 
जो पृथ्वी के तीन भाग में फैले खारे पानी के महासागरों को मीठा कर सके 

ईश्वर फिर अपने खेल के लिए रचेगा,
इस सृष्टि के अंत के पश्चात
आदम और हव्वा ,
इस बार लेकिन वो होंगे केवल, 
 मधुमक्खियाँ
जिनसे खुदा करेगा रसपान,
जो फूलों के रस से बनाएंगी शहद

तब मौजूद नहीं होगा कोई इंसान
कि उठा कर फेंक सके पत्थर, 
और उजाड़ सके किसी का घर,
और फिर आराम से बैठ कर चाट सके,
शहद में डूबी अपनी कातिल उँगलियों को ।।

Friday, 27 March 2020

दुआएं ❤️

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