अक्सर
जैसे जैसे दिन ढ़लने लगता है, मन भारी सा होने लगता है।
जब क्लास सेकंड का रिजल्ट आया और बच्ची थर्ड में गयी तो पिता खुश हो गए और घूमने के लिए अपनी बहन के साथ भेजने का निर्णय कि छुट्टियों में दो महीने के लिए घर से दूर घरवालों के बिना शिमला रहना पड़ा था तब उसने बचपन में पहली बार ऐसा भारीपन महसूस किया था।
वो दो महीने आज बयालीस साल बाद भी उसे नहीं भूलते।
अंग्रेजो के जमाने की अनेक मंजिला विशाल कोठी में अलग अलग हिस्से में कई परिवार रहते थे।
सबकी पंजाबी भाषा की आवाज़ें आती थी।
क्या पका है?
खाना बन गया क्या?
आज लक्कड़ बाजार तक जाना है।
किसी को नीले इंजन और डिब्बे वाली रेलगाड़ी पकड़नी है।
सुनते रहने को बहुत कुछ लेकिन बोलने के लिए कुछ नहीं और वैसे भी कोई सुनने वाला भी नहीं।
कहा क्या जाता है ये भी पता नहीं!
जैसे तो बच्चों को बोलना नहीं होता है।
सब उम्र में बड़े।
हक ही नहीं बोलने का।
दिनचर्या में हर रोज सुबह चुपचाप उठो, ब्रश करो, ठंडे पानी से हाथ मुँह धोयो या नहाओ तो घंटा डेढ़ घंटा कंपकापा लो।
क्यूँकी ये तो पता था कि पानी गर्म करने वाली रॉड हटा नहीं पायेंगे और बिजली का काला गोल स्विच तो पहुंच से बहुत दूर है।
फिर चाय के साथ पैकेट से निकली ब्रेड या नाश्ता जो मिले खा लो।
अलग से भूख लगे तो नाश्ता लंच और डिनर के बीच में कुछ नहीं खा सकते चाहे उसने नाश्ता पूरा किया या नहीं।
चाहे लंच खाया गया या नहीं।
चाहे डिनर की रोटियाँ ठंड में अकड़ गयी हों।
उस बर्फ वाले घर का बच्चे के हाथ में चिप्स कभी केला कभी सेब कभी बार्नवीटा वाला दूध होता था।
हाँ एकबार उस बच्चे से कह कर सबके सामने ही बार्नवीटा की खुशबु ली थी अच्छी लगी थी।
सब खूब हँसे, खुश हो गये।
उसने सबकी ओर देखा उसे पता नहीं चला मजाक था या उसमें क्या मजाक था?
पिता की समझदार बहन नहीं समझ पाई कि इसे भी देना चाहिए।
सीधे लोग होते हैं न।
बड़े होकर बाद में सीधेपन से ही सुना था अरे तो इसे कहना चाहिए था न।
पिता ने तो बिटिया के लिए चलते समय नोट की गड्डी दी थी उन्हें, ये देखा था उसकी छोटी आँखों ने, जब पिता ने बिटिया का हाथ सौंपा था कि इसको इस छुट्टी अपने घर घुमा लाओ और अच्छे अच्छे दो तीन जोड़ी कपड़े ले भी लेना इसके।
फिर वहाँ
बाक़ी समय सब काम में व्यस्त।
कहीं घूमना नहीं कोई पड़ोसी कहते अरे लाओ इसे भी साथ घुमा लाते हैं तो नजरों से ही मना करने के लिए कह दिया जाता।
सीख लिया ये भी कि उधर देखना और तुरंत सिर हिला कर मना कर देना।
रोज सुबह से ही घर में कोई अंदर जा रहा कोई बाहर जा रहा।
मूकदर्शक देखते हुए कुछ समझ में आ जाए तो दुबले पतले हाथों से कुछ काम करने के लिए कोशिश की ।
पर सही तो होगा नहीं तो झिड़की खा कर वापस बालकनी में बिना आत्मा के शरीर लिए लटक जाओ।
हर दिन सुबह से शाम तक दो महीने तक।
बर्फ या जंगल को घूरते रहो।
सबकी बालकनी टूटी कंडी (टूटी कंडी जगह का नाम, वहां चिड़ियाघर होता था) को जाने वाले रास्ते की ओर खुलती थी।
टूटी कंडी का रास्ता बहुत दूर नीचे था।
देवदार के बड़े बड़े वृक्षों से आँखे जमाती हुई खोजती सी बर्फ के ढेर में फिसल जाती थी और अचानक चींटी के बराबर का कोई न कोई इंसान बर्फ भरे रास्ते में दिख जाता था।
मेरी आंखे लगातार उसका पीछा करते रहती थी जब तक वो ओझल न हो जाए।।।
मन अब भी उन्हीं रास्तों पर भटकता है लेकिन कोई भी तो अपना नहीं दिखता।
बच्चों को रिश्तेदारों के घर मत भेजा करो।
कैसे भी।
चाहे बच्चा जिद करे या आपको लगता है कि वहां पढाई करने भेज दो या कुछ भी कारण हो।
जीते जी बिना किसी खास परिस्थितियों के बच्चों को दूर नहीं करना चाहिए।
एक बार चिठ्ठी में दो लाईन लिखने के लिए चिठ्ठी दी गयी, उसने लगभग सौ बार लिख दिया जल्दी आओ जल्दी आओ और चिठ्ठी बंद कर दे दी।
उन्होंने पढ़ने के लिए चिठ्ठी की तह खोली और खोलते ही बरस गये, क्यों हम तुझे खाना नहीं दे रहे हैं तुझ पर अत्याचार कर रहे हैं।
उसे समझ में नहीं आया कि क्या हुआ क्यों डांट रहे हैं।
उसने तो बार बार सिर्फ आने के लिए लिखा था ताकि अब जल्दी आ जाएंगे।
तब से मन भारी हो जाता है।
दो में पढ़ने वाले बच्चे के मन में हमेशा के लिए ये नया अहसास घर कर गया।
एक बार मदर्स डे पर वही फिलिंग।
और अब तो उसकी, अपनों की यादों के बीच उनके बिना अक्सर शामें उदास होती है।
जब जब मन उदास होता है तो उस फिलिंग के जन्म का समय जरूर याद आता है।
No comments:
Post a Comment