Adhyayan

Wednesday, 29 December 2021

आत्म अभिव्यक्ति

मैं कुछ लिखना चाहती हूँ
किन्तु अभिव्यक्ति नहीं पाती हूँ
मेरा स्वप्न घरोन्दा छोटा था
पर सुन्दर सा ज्यों स्वर्ग समान
टूट गया, अब यादों के हेतु
रेत में रेखाचित्र बनाती हूँ, 
किन्तु अभिव्यक्ति नहीं पाती हूँ! 

यूँ नहीं विचार-शून्य मन हो
शान्त हृदय का प्रांगण हो
अनवरत प्रश्नों की महानदी में
तृण-मात्र बहा जाती हूँ
किन्तु अभिव्यक्ति नहीं पाती हूँ! 

सुनहली चाँदनी की स्याही से
आकाश पटल के कागज़ पर
कल्पना की कूची ले कर
कुछ चित्रित किया चाहती हूँ
किन्तु अभिव्यक्ति नहीं पाती हूँ! 

हे विधा! कैसा तुमने खेल किया
जीवन का ऐसा अजब आलेख किया
जीवन के इस कठिन मोड़ पर
तुमसे कई प्रश्न किया चाहती हूँ
किन्तु अभिव्यक्ति नहीं पाती हूँ! 

संध्या निशि सिंगार कर रही
है तिमिर साम्राज्य छाने को
इसी तम को मैं मान मित्रवत
हृदय की बात किया चाहती हूँ
किन्तु अभिव्यक्ति नहीं पाती हूँ! 

उतने मीठे गीत हैं होते
जितनी होती उन में पीड़ा
हृदय-भर अपनी इस पीड़ा से
एक गीत रचा चाहती हूँ
किन्तु अभिव्यक्ति नहीं पाती हूँ! 

जिव्हा जब उसे कह नहीं पाती
तब पीड़ा आँखों में भर आती है
अश्रु-बूंदें बहुत कुछ कह जाती हैं
जाने कब से नीर बहाती हूँ
किन्तु अभिव्यक्ति नहीं पाती हूँ! 

वेदना की क्या अभिव्यक्ति?
अश्रु समझ तुम सके नहीं
आँसूओं को ढाल शब्दों में
इन्हें मुखर करना चाहती हूँ
किन्तु अभिव्यक्ति नहीं पाती हूँ!

Saturday, 11 December 2021

छुअन

तुम्हारे हाथों की छुअन... :)

अपने फ़लक के चांद को
कुछ सोचते हुए मैंने
खींच कर छुटाया
और थोड़ा दायीं ओर करके
फिर चिपका दिया
हाँ, अब सप्तर्षि ठीक से दिखता है
पर ऊपर की तरफ़ वो चार सितारे
अभी भी कुछ जँच नहीं रहे
ह्म्म
चलो इन्हें थोड़ा छितरा देती हूँ
लेकिन इससे जगह कम हो जाएगी
थे ः9धऔर हाँ, नीचे की ओर ये कई तारे
कुछ अधिक ही सीध में नहीं लग रहे ?

मैं इसी उधेड़-बुन में थी
अपने घर के आकाश को
सजाने की धुन में थी
कि तभी तुम आये
मेरे चेहरे पर छाई
दुविधा देख
तुम मुस्कुराये
कुछ पल गगन निहारा
फिर अपनी अंजुली में
समेट लिया आकाश सारा
पूरा चांद और हर इक तारा,

मैं चौंक कर अपनी उधेड़-बुन से निकली
मुझे अचरज में देख
तुम खिल-खिलाकर हँस पड़े
और बड़ी चंचलता से तुमने
सारे सितारे फिर से
आकाश में यूं ही बिखेर-से दिए

मेरी हैरत असीम हो गई!
हर सितारा अपनी जगह
तरतीब से टंक गया था
चांद भी अचानक
कुछ अधिक ही
सुंदर लगने लगा
और सारा आकाश
एकदम व्यवस्थित हो गया
फिर तुम करीब आकर
मेरे कांधे पर हाथ रख
बैठ गये!
मैं आश्चर्य की प्रतिमूर्ती बनी
कभी आकाश को, कभी तुम्हें
कभी तुम्हारे सुंदर हाथों को
देखती ही रह गयी

कुछ तो हुनर है
तुम्हारे हाथों की छुअन में
कि हर चीज़ सज जाती है
सलीके से
चाहे वो ज़िन्दगी हो या आकाश !
"तनु"

Wednesday, 1 December 2021

Deep in to eyes

दिल चाहता है 

"When Tara comes to Sid's place to look at the paintings made by Sid, she just gazes very deeply at each painting and says, "Isme bhi vahi baat". Sid is curious to know what she means and what she's found in his paintings. So when Sid asks her, she explains: 

"आज मैंने तुम्हारे बारे में एक बात जानी है। कहने को तुम लोगों से हँसते हो, बोलेतेे हो l लेकिन तुम्हारे अंदर जो दुनिया है , तुम्हारे ख़्वाब , तुम्हारे सपने, वो तुम किसी से नही बाटते। मुझे तो लगता है जो लोग तुम्हें जानते है, वो भी तुम्हें ठीक से नहीं जानते ।"

( Today I learned something about you. Even though you interact and laugh with people, there's a world inside you that you don't share with them. In fact I feel that even the people who claim to know you, don't really know you). 

And I was just stunned at these lines..these lines were exactly written for the thousands of people in whom deep inside, there is someone like Siddharth. How often do we want to share or tell something to someone but we just don't, not because we don't have anyone, but the reason is just that we can't. It's just within you. I was just wonderstruck by this scene, it's like Tara said these lines to me. This scene made me realise that there is someone who knows exactly what I feel, I realised that someone is there who knows me. It's not just that she knew what's inside me, but she knew what even I didn't know about me. 

I rewind this scene again and again just to listen to Tara's dialogues..
it's so profound and calming to me. Thanks Tara for making me believe that a stranger too can understand us. Thanks Tara for reaffirming my faith in the kindness of strangers. Thanks Tara for introducing me to myself. Thanks Tara for the kind words!!"

Tuesday, 30 November 2021

मन का सूर्य ☀

सुबह हो गई है /
प्रमाण हैं इसके,
पेड़, पौधे, रेत  टीले  पहाड़ 
सब दृष्टिगत हो रहे हैं,
रास्ते भी स्पष्ट हो गए हैं! 
स्त्रियां द्वारे बुहार रही हैं /
शुभता चारों और फैली है,
और इस शुभता पर, 
हल्की सी धुंध ने डेरा डाल रखा है /
इस काली रात को, 
सुबह बनाने वाले,
तुम अब भी नहीं दिखे कभी,
खुली आँखों से, 
इस सुबह की ये सबसे बुरी बात है...
कि चाहिए एक लालिमा, 
इस कालिमा पर, 
प्रमाण को परिमाण की आवश्यकता है 
सुबह को सूर्य की आवश्यकता है
                   " तनु " 1/12/2015

Saturday, 2 October 2021

सवांर लूँ ख़ुदाई

क्यों तुझे  डर है कि तू पिघल कर न बन जाए कोई शिला

जाते जाते तुम स्त्री का स्त्रीत्व विचित्र रूप से क्यूँ ले जाते हो,
वो बनना संवारना चाहती है तो उसे अज़ीब लगता है!

तुम चाहे दुनिया से चले जाओ या यूँ ही आगे बढ़ जाओ, स्त्री को एक ठहराव दे जाते हो!

मजबूत हो जाती है वो!
उसका फोन आया , कल जाना है न..
क्या पहना जाए, मेरे पास तो कुछ रहता भी नहीं है न, आप जानते ही हो!

स्वयं जूझते हुए आगे बढ़ गयी तो क्या यहाँ तो हजारों लड़कियां अपनी अंदर की लड़ाई लड़ रही हैं।

कहा कि साड़ी पहन लो या अच्छा सा लॉंग कुर्ता, जीन और कुछ फंकी ज्वैलरी ।

कहते ही वह आश्चर्य मिश्रित रूप से ऊहापोह की स्थिति में आ गयी वो।

क्यों... क्या सजना संवरना नहीं चाहती है वो.?
उसकी आशाएं जिंदा है अभी। 

चाहती है, पर उसने जिसे आधार मान लिया था वो बीच रास्ते में उसका हाथ छुड़ा कर सदा के लिए उसे अकेला करके चला गया।

जूझना पड़ा उसे हालातों से, अपनी भावनाओं से अब बमुश्किल होश आया है उसे तो पहला शब्द था कि हाँ आगे बढ़ना चाहती है वो।

अब मन बनाया है लेकिन अब उसे, उसके जैसा कोई नहीं चाहिये जिससे वो सबसे ज्यादा प्रभावित थी, दिलोजां से चाहती थी।

सोच रही हूँ कि कैसा प्यार था कि जिसके बिना रह नहीं सकती अब भी यादों में है उसी के जैसा कोई भी नहीं चाहिए।
सिर्फ़ आदत हो गई थी उस घुटन में रहने की। 
अंदर तक प्रेम के बहाने उसी प्रेमी के द्वारा उसके कुचले, दबे अहसासों से अब तक डरी हुई है वो ,
हाँ, समझ में आती है उसकी बात।

और अपने से, अपनों से, परायों से लड़ते- लड़ते, लिहाज़ करते, समाज की मर्यादा निभाने की कोशिश उसे मर्दाना ही तो बना दिया इन परिस्थितियों ने।

लड़ रही है वो।
कोशिश मत कर, बस हो जाने दे जो हो रहा है।
बह जा हवा के साथ।

कष्ट अवश्यंभावी है, पर पीड़ित होना स्वेच्छा पर निर्भर है।
तेरा स्त्रीत्व ही तेरा अस्तित्व है।                             
                 "तनु " 3/9/2019

Monday, 30 August 2021

कभी कभी

#कभी_कभी 

तुम आते हो ना यहाँ कभी कभी, कभी कभार मेरी याद तुम्हें इस बियाबान में घूमने के लिए मजबूर करती है। 
अब बहुत देर हो गई है, बैठे रहना चाहती थी तुम्हारे साथ घंटों चुपचाप खुले आसमान के नीचे , तुम्हारे बालों में उंगलिया फेरने का जी चाहता था !
कुछ मेरी ही सीमा रेखा ने बांध दिया है मुझको!
माना कि किसी को उत्तर नहीं देना है मुझे!
पर आँखों को तो जवाब देना है। 
ख़ुद को आईने में न देख पाऊँ... 
अपनी आंखों से बहुत डर लगता है मुझे।
ताउम्र नकली चश्मा नहीं लगा सकती हूँ न।
इस हलके-हलके बढ़ती जा रही उम्र को भी तो उत्तर देना होता है न।
      ढलती उम्र की एक आखिरी शाम को खुद से सवाल होगा न।
कि क्या खोया और क्या पाया ?
तब अपने शरीर से बाहर निकलती आत्मा झाँक कर देखगी मेरे खुद के अंदर।
तो पाएगी कि जमीर जिंदा था और तुम्हें भी आराम मिलेगा दमकते दामन को देखते हुए। 
और तब सुकून भर उठेगी रूह मेरी "तनु"... 
और मेरे साथ तुम्हारी भी पाकीजा रूह को करार मिल जाएगा।

Monday, 16 August 2021

क्षमा करना

क्षमा करना शत्रुओ!
___________________

सच बतलाने में हर्ज है क्या ? 

मेरा दोष केवल इतना ही है कि ऊब जाती हूं शत्रुओं से 

क्षमा करना शत्रुओ, कि जो ये कांस्य के कवच पहनकर कुरुक्षेत्र में खड़े हो, तुम्हारी पसलियों पर कितने चुभते नहीं होंगे! जबकि पूर्व भाद्रपद नक्षत्र के बावजूद आज इतनी उमस ! 

बहुधा ऊब जाती हूं प्रेम करते करते फिर यह तो घृणा है!
क्योंकि मैंने देखा है कि तुम तो दिखावे में जीते हो, तुम्हें किस बात की कमी है। 
तुमने मेरा ही तो हाथ थाम कर मुझे डुबोया है। 

ऊब जाती हूं लड़ते-लड़ते, जबकि मैंने ही किया हो संघर्ष का शंखनाद और रणभूमि में दोनों दिशाओं में सजी हो अठारह अक्षौहिणी सेनाएं, मेरे अगले प्रहार की विकल प्रतीक्षा में!
और ऊब जाती हूं मित्रता के प्रसार से फिर यह तो शत्रुता है!

इसमें दिशाशूल का दोष नहीं. मत कोसो कुमुदनाथ सान्याल के पंचांग को, जिसमें भ्रामक सूचनाएं ! 

दोष तो मेरा है कि ऊब जाती हूँ कि तुम्हारी कुटिल चालों से। 

याद है घर की बूढ़ी की मौत उसकी अलमारियां खगालते तुम लज्जाहीन हो जाने को आतुर। 
ब्रेड के मक्खन के लिए लपलपाती तुम्हारी जीभ। 
उन्नीस सौ निन्यानवे में अध्यापिका थी . पढ़ाती थी कई विषय, पर तुम मेरा प्रमुख विषय बन गये हैं। 
तुम्हारे लालसा, लालच की कोई सीमा नहीं। 

जब तक प्रेमी थी, लिखती थी प्रणय का आकुल अंतर ! 

दो हज़ार चार में योद्धा का रूप धरा। कोहनियां छिल गईं, दिखलाऊं क्या ? 

यह दो हज़ार सत्रह है और मुखपुस्तक पर लिख रही हूँ , जबकि प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा कर रहे हैं शत्रुगण. 

क्षमा करना शत्रुओ, कि जो ये प्रत्यंचा खींचे कुरुक्षेत्र में खड़े हो, दुखने लगे होंगे तुम्हारे कंधे! 

रविवार है, तुम धनुष रख दो! 

मायावी था "मारीच". नानाविध रूपों में आता था. 

मायावी मैं भी हूं, किंतु ऊब जाती हूँ अतिशीघ्र !

ऐन अभी मुझे "प्यासा" का गुरु दत्त याद आ रहा है, जिसने जयघोष के निनाद के बीच कह दिया था । 

"मैं वो नहीं हूं, जो आप लोगों ने मुझे समझ लिया है !"

और अगले ही क्षण हाहाकार में बदल गया था जयघोष, भर्त्सना का रूप धर चुकी थीं प्रशस्तियां ! 

भीड़ आपको जिस नाम से पुकारे, आत्मघाती होता है भरी सभा में उससे इन्कार ! 

गुरु दत्त ने नींद की गोलियां अवश्य खाई थीं, किंतु वह आत्मघाती नहीं था।
वो केवल गुरु दत्त होने से ऊब गया था ! 

जैसे औलिया होने से ऊब गया था निज़ामुद्दीन जब उसके घर के पूर्वी दरवाज़े से भीतर घुस आया था सुल्तान ! 

मैं अपने आप से ऊब जाती हूँ, क्षमा करना शत्रुओं !

और जो आरोप तुमने मुझ पर लगाए हैं, उन्हें एक जिल्द में जोड़कर छपवा लेना ऐय्यारी उपन्यास और बेच आना मंडी में । 

क्योंकि मुफ़्त नहीं मिलते हैं कांसे के कवच।
मुफ़्त नहीं मिलता है पसलियों पर घाव !
खीसे में कौड़ी होगी तो सौदों का सुभीता रहेगा !

2017  💐

Sunday, 4 July 2021

जीवन स्वरुपा

#स्त्री 

जिन लोगों के रास्ते फौलाद के सींखचे हो, वे लोग चाहे कुछ न कर सकते हों, पर किसी दिन उन सींखचों को तोड़ देने का सपना जरूर देख सकते हैं।

पर मेरे रास्ते में तो लहू-माँस के सींखचे लगे हुए हैं...

एक औरत अपनी कोख से जब लहू-माँस को जन्म देती है, तो वह उन सींखचों के पीछे खड़ी होकर उन्हें तोड़ देने का सपना भी नहीं ले सकती ! 
  ______________________

Truth

According to a 19th century legend, the Truth and the Lie meet one day.

The Lie says to the Truth: "It's a marvellous day today".

The Truth looks up to the skies and sighs, for the day was really beautiful.
They spend a lot of time together, ultimately arriving beside a well.
The Lie tells the Truth: "The water is very nice, let's take a bath together!" The Truth, once again suspicious, tests the water and discovers that it indeed is very nice.
They undress and start bathing. Suddenly, the Lie comes out of the water, puts on the clothes of the Truth and runs away.
The furious Truth comes out of the well and runs everywhere to find the Lie and to get her clothes back.
The World, seeing the Truth naked, turns its gaze away, with contempt and rage.
The poor Truth returns to the well and disappears forever, hiding therein, its shame. Since then, the Lie travels around the world, dressed as the Truth, satisfying the needs of society, because, the World, in any case, harbours no wish at all to meet the naked Truth'

Thursday, 29 April 2021

इंसान/जानवर

खबर संसार

#इंसान /#जानवर
एहसास 

याद रहता है कि बचपन से ही अपने होने को लेकर मैं असहज महसूस करती थी, हर वक़्त कि, मैं क्यों हूँ और हमें क्या करना है या ऐसे ही जिंदगी चलती है क्या ?
हम सामान्य बातों के लिए तर्कसंगत तरीके से सोचते हैं और असामान्य बातों के लिए असंगत रूप से।
हमें अपने जानने की सीमा बढ़ानी चाहिए और कभी अनजाने बातों के लिए गहरे में उतरना चाहिए।
मानवता का मतलब मानवीय मूल्यों और गुणों श्रेय ईश्वर को देना होगा। 

मैं घंटों बाग में पानी देते हुए तितलियाँ ढूंढती और रंग बिरंगे फूलों के बीच ज्यादा रहती वही खाना चलता वही किताबें होती।
आमों के पेड़ के नीचे ठिकाना होता था।

ये असहज व्यवहार नहीं बल्कि अपनी पसंद में निर्भर करता है। 
मुझे साफ सुथरा प्रैजेन्टेबल रहना अच्छा लगता था लेकिन तब चूड़ी बिंदी जैसी महिला सजग अनुभूति कभी नहीं रही।
मेरी भाभियाँ किसी शादी के आने से पहले चौकस हो जाती थी ब्यूटी पार्लर जाना, मैचिंग कपड़े, सैंडल आदि आदि जो भी आवश्यक सामान होता उनकी गप्पें और खरीदारी शुरू हो जाती।
वो बाजार से सामान लाते और फिर घर में सब घेर कर देखते और अब बाकी क्या क्या है इस बात का विचार विमर्श होता।
मुझे उनको देखकर अच्छा लगता सामान में अपना इन्टट्रैस्ट दिखाती और जरूरत होती तो अपनी बात भी कहती।
भाभीजी लोग कहते कि तुम क्या पहनोगे या चलो ये लो आदि।
मैं कहती नहीं भाभी जी, इतना लकदक।
नहीं हो सकता।
अपना तो सूट या जींस ही सही है या फिर जाऊँगी नहीं।
यूँ ही अच्छा समय चलता रहता।

फिर समय पलटा और विपरीत परिस्थितियों ने कुछ कहना या न कहना बंद करा दिया।
कोई कैसे समझ सकता है जब तक उसे उसका अहसास न हो। 
हाँ, सालों साल चलते रहने वाले प्रकरण में उस वक्त की याद आती जब सब साथ में खिलखिलाकर हँसते थे, खाते थे।

कई बार देखा कि लोग मिलते लेकिन परिस्थितिवश वो सामने हँसने मुस्कुराने से कतराते कि यहाँ इन हालातों में कैसे कोई हँसे ?
धीरे धीरे ये होने लगा कि अगर हम हँसे तो लोग मन में आश्चर्य करते कि अरे...
तुम कैसे हँस सकते हो ? 
तुम्हारे तो हँसने के सारे रास्ते बंद हैं।
तुम्हारा जो कुछ भी है अब हमारा है।
अब मुझे सच में हँसी आती, मैं उन सबको देखते हुए अंदर से खूब हँसती कि क्या तुम इंसान हो ?

तब उन दिनों "जिमी" (फिमेल कुत्ता) हमारी दुनिया में आई और वो ऐसा महसूस कराती थी कि आश्चर्य होता कि ये जानवर कैसे हो सकती है ?
हर किस्म के अहसास उसके अंदर है वो देखती कि सब दुखी हैं तो खाना नहीं खाती या नहीं दे रहे तो माँगती नहीं।
वो खुशी का इजहार भी करती है। 
बात जिमी के विषय में नहीं है अहसासों की है। 
तुम लोग पहले सहानुभूति और दर्द महसूस करते थे और अब उस दर्द और सहानुभूति का अहसास करा कर अहसान जताते हो और उन दर्द से से निकलने नहीं देते हो।

"शिबो शिब "जैसे खुद ब खुद इजाद कर दिये गये शब्द...

तब घटित होती जाती घटनाओं में मैने समझा कि घटनाओं के बारे में चिंता होती है लेकिन चिंतित नहीं होना चाहिए।
और उसका मतलब समझने की कोशिश करनी चाहिए।

तुम स्वयं रास्ता निकालो क्योंकि तुम्हारी और मेरी जिंदगी अलग है नकल मत करो।
मैं उनके बारे में सोचती कि तुम्हारे सहारे हैं कोई न कोई साथ देने वाला है।
मुझसे होड़ मत करो।
और अपने से कहती सावधान।गलत को गलत कह दो। 
कोई भी वह व्यक्ति किसी और के साथ भला हो सकता है और तुम्हारे साथ नहीं।

हम इस कठोर दुनिया में बचे हुए हैं तो सिर्फ योग्यता के आधार पर नहीं बल्कि अपनी इच्छा शक्ति के बलबूते पर।
कि किसी जिम्मेदारी को आपने खुद ओढ़ लिया है और अब जरूरत है उसके बारे में सोचने की उसे पूरा करने की।
हुआ है ऐसा कि जब किसी ने कहा कि वह ऐसा कह रहा था तब अंदर से  जोर से हँसी आई कि तुम बता रहे हो या तुम्हारे अंदर का जानवर बता रहा है कि तुम पूछ रहे हो। 
कहती नहीं हूँ लेकिन कौन हो तुम ? क्या हो तुम ?
बेजुबां हो तुम तो....
तुम्हारा बातों को जानने की कोशिश का लालच दिख रहा है इतना मत गिरो कि कभी नजरों से न उठ पाओ।

अपराधी भी अपराध करने के बाद सोचता है। तुम कहाँ और कितने गिरोगे ? 
क्या मैं तुम्हारी न कह सकने वाली बात नहीं पहचान पा रही, बिल्कुल पहचान रही हूँ।
गलत विचार हैं रूक जाओ वही। 

जानवरों के पास आवाज होती तो देवदूतों की जबान में बात कर सकते थे।
मेरी दुनिया में तो फरिश्ते रहते हैं। 
जानवरों के प्रति हमारा व्यवहार किसी नैतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण नहीं होता लेकिन मानव जाति के बौद्धिक विकास के लिए महत्वपूर्ण हो जाता।

हम इस दुनिया में बचे हुए हैं इसलिए नहीं कि योग्य है बल्कि इसलिए कि हम आपको, इस प्रकृति को और पशुओं को प्यार करते हैं।

मेरे एक दोस्त ने हाल ही में कहा था कि "तनु" तुमने तब सबको जवाब देना चाहिए था और मैंने कहा कि तब मेरे पास उससे भी ज्यादा जरूरी काम था।
आज जिस विषय पर चर्चा कर रहे हैं न, ये नहीं कर पाते।

तब उनको विचारों में खो जाते हुए देखा मैंने।
उनकी आँखों की पुतलियों सिकुड़न से उन्हें सोच में पड़ते हुए देखा मैंने।
और फिर मुझे ही उन्हें वापस लाना पड़ा, अरे ज्यादा मत सोचिए, सब ठीक है अब।

हाँ, ठीक तो है पर कैसे किया होगा ? 
हम सोच नहीं पाते और... 

मैं इसलिए नहीं लिख रही कि किसी को कुछ समझाना है बल्कि इसलिए कि किसी एक को, इसको पढकर कोई एक परिस्थिति में हौसला मिल सकता है और बुरे से बुरी परिस्थिति स्थायी नहीं होती, यकीन मानिए कि हौसला हो तो यह वक्त भी अपने वक्त के साथ गुजर जाएगा। 🌇

Monday, 12 April 2021

अस्मिता

#आज_उदास_है_तनु ।।। 
#मैं_उदास_हूँ_स्त्री_अस्मिता_के_लिए 
#उसकी_शाश्वत_प्रतीक_जानकी_के_लिए।

मर चुका है रावण का शरीर 
स्तब्ध है सारी लंका
सुनसान है किले का परकोटा
कहीं कोई उत्साह नहीं
किसी घर में नहीं जल रहा है दिया
विभीषण के घर को छोड़ कर।

सागर के किनारे बैठे हैं विजयी राम
विभीषण को लंका का राज्य सौंपते हुए
ताकि सुबह हो सके उनका राज्याभिषेक
बार बार लक्ष्मण से पूछते हैं 
अपने सहयोगियों की कुशल क्षेम
चरणों के निकट बैठे हैं हनुमान!

छोटे हैं किन्तु मन में क्षुब्ध हैं लक्ष्मण 
कि राम क्यों नहीं लेने जाते हैं सीता को 
अशोक वाटिका से पर कुछ कह नहीं पाते हैं।

धीरे धीरे सिमट जाते हैं सभी काम 
विभीषण का राज्याभिषेक होकर, 
किंतु राम प्रवेश नहीं करते लंका में
बहार ही ठहरते हैं एक ऊँचे टीले पर।

भेजते हैं हनुमान को अशोक-वाटिका
यह समाचार देने के लिए कि मारा गया है रावण और अब लंकाधिपति हैं विभीषण।

सीता सुनती हैं और रहती हैं खामोश
कुछ नहीं कहती बस निहारती रास्ता
रावण का वध करते ही वनवासी राम बन गए हैं सम्राट ?

लंका पहुँच कर भी भेजते हैं अपना दूत
नहीं जानना चाहते एक वर्ष कहाँ रही सीता
कैसे रही सीता?
नयनों से बहती है अश्रुधार अपरम्पार 
जिसे समझ  पाते हनुमान, 
पर कह नहीं पाते वाल्मीकि।

सोचती सीता, राम अगर आते तो मैं उन्हें मिलवाती इन परिचारिकाओं से 
जिन्होंने मुझे भयभीत करते हुए भी 
स्त्री की पूर्ण गरिमा प्रदान की
वे रावण की अनुचरी तो थीं 
पर मेरे लिए माताओं के समान थीं।

राम अगर आते तो मैं उन्हें मिलवाती 
इन अशोक वृक्षों से इन माधवी लताओं से
जिन्होंने मेरे आँसुओं को 
ओस के कणों की तरह सहेजा अपने शरीर पर 
पर राम तो अब राजा हैं वह कैसे आते सीता को लेने ?

विभीषण करवाते हैं सीता का श्रंगार 
और पालकी में बिठा कर पहुँचाते है राम के भवन पर
पालकी में बैठे हुए सीता सोचती है
जनक ने भी तो उसे विदा किया था इसी तरह! (तो यह भी है पिता समान) 

वहीं रोक दो पालकी, गूँजता है राम का स्वर 
सीता को पैदल चल कर आने दो मेरे समीप!
ज़मीन पर चलते हुए काँपती है भूमिसुता 
क्या देखना चाहते हैं 
मर्यादा पुरुषोत्तम, कारावास में रह कर 
चलना भी भूल जाती हैं स्त्रियाँ?

अपमान और उपेक्षा के बोझ से दबी सीता
भूल जाती है पति मिलन का उत्साह
खड़ी हो जाती है किसी युद्ध-बंदिनी की तरह!

कुठाराघात करते हैं राम ---- 
सीते, कौन होगा वह पुरुष 
जो वर्ष भर पर-पुरुषके घर में रही स्त्री को 
करेगा स्वीकार ?
मैं तुम्हें मुक्त करता हूँ, तुम चाहे जहाँ जा सकती हो।
(सीता का ह्रदय फट जाता है, भंयकर पीड़ा, अपमान आर्तनांद )

राम के आते शब्दों के वार... 
उसने तुम्हें अंक में भर कर उठाया 
और मृत्यु पर्यंत तुम्हें देख कर जीता रहा
मेरा दायित्व था तुम्हें मुक्त कराना
पर अब नहीं स्वीकार कर सकता तुम्हें पत्नी की तरह!

वाल्मीकि के नायक तो राम थे, 
वे क्यों लिखते सीता का रुदन और उसकी मनोदशा ? 
उन क्षणों में क्या नहीं सोचा होगा सीता ने
कि क्या यह वही पुरुष है 
जिसका किया था मैंने स्वयंवर में वरण
क्या यह वही पुरुष है जिसके प्रेम में 
मैं छोड़ आई थी अयोध्या का महल
और भटकी थी वन, वन!

हाँ, रावण ने उठाया था मुझे गोद में
हाँ, रावण ने किया था मुझसे प्रणय निवेदन
वह राजा था चाहता तो बलात ले जाता अपने रनिवास में, पर रावण पुरुष था,
उसने मेरे स्त्रीत्व का अपमान कभी नहीं किया। 
भले ही वह मर्यादा पुरुषोत्तम न कहलाए इतिहास में!

यह सब कहला नहीं सकते थे वाल्मीकि
क्योंकि उन्हें तो रामकथा ही कहनी थी!

आगे की कथा आप जानते हैं
सीता ने अग्नि-परीक्षा दी
कवि को कथा समेटने की जल्दी थी
राम, सीता और लक्ष्मण अयोध्या लौट आए
नगर वासियों ने दीपावली मनाई 
जिसमें शहर के धोबी शामिल नहीं हुए।

आज 
मैं उदास हूँ उस रावण के लिए 
जिसकी मर्यादा किसी मर्यादा पुरुषोत्तम से कम नहीं थी।

मैं उदास हूँ बहुत, कवि वाल्मीकि के लिए 
जो राम के समक्ष सीता के भाव लिख न सके।

आज 
मैं उदास हूँ बहुत, स्त्री अस्मिता के लिए 
उसकी शाश्वत प्रतीक जानकी के लिए।