#कभी_कभी
तुम आते हो ना यहाँ कभी कभी, कभी कभार मेरी याद तुम्हें इस बियाबान में घूमने के लिए मजबूर करती है।
अब बहुत देर हो गई है, बैठे रहना चाहती थी तुम्हारे साथ घंटों चुपचाप खुले आसमान के नीचे , तुम्हारे बालों में उंगलिया फेरने का जी चाहता था !
कुछ मेरी ही सीमा रेखा ने बांध दिया है मुझको!
माना कि किसी को उत्तर नहीं देना है मुझे!
पर आँखों को तो जवाब देना है।
ख़ुद को आईने में न देख पाऊँ...
अपनी आंखों से बहुत डर लगता है मुझे।
ताउम्र नकली चश्मा नहीं लगा सकती हूँ न।
इस हलके-हलके बढ़ती जा रही उम्र को भी तो उत्तर देना होता है न।
ढलती उम्र की एक आखिरी शाम को खुद से सवाल होगा न।
कि क्या खोया और क्या पाया ?
तब अपने शरीर से बाहर निकलती आत्मा झाँक कर देखगी मेरे खुद के अंदर।
तो पाएगी कि जमीर जिंदा था और तुम्हें भी आराम मिलेगा दमकते दामन को देखते हुए।
और तब सुकून भर उठेगी रूह मेरी "तनु"...
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