Adhyayan

Tuesday, 12 December 2023

छुअन

तुम्हारे हाथों की छुअन... :)

अपने फ़लक के चांद को
कुछ सोचते हुए मैंने
खींच कर छुटाया
और थोड़ा दायीं ओर करके
फिर चिपका दिया
हाँ, अब सप्तर्षि ठीक से दिखता है
पर ऊपर की तरफ़ वो चार सितारे
अभी भी कुछ जँच नहीं रहे
ह्म्म
चलो इन्हें थोड़ा छितरा देती हूँ
लेकिन इससे जगह कम हो जाएगी
रोहिणी और झुमका के लिए
और हाँ, नीचे की ओर ये कई तारे
कुछ अधिक ही सीध में नहीं लग रहे ?

मैं इसी उधेड़-बुन में थी
अपने घर के आकाश को
सजाने की धुन में थी
कि तभी तुम आये
मेरे चेहरे पर छाई
दुविधा देख
तुम मुस्कुराये
कुछ पल गगन निहारा
फिर अपनी अंजुली में
समेट लिया आकाश सारा
पूरा चांद और हर इक तारा,

मैं चौंक कर अपनी उधेड़-बुन से निकली
मुझे अचरज में देख
तुम खिल-खिलाकर हँस पड़े
और बड़ी चंचलता से तुमने
सारे सितारे फिर से
आकाश में यूं ही बिखेर-से दिए

मेरी हैरत असीम हो गई!
हर सितारा अपनी जगह
तरतीब से टंक गया था! 
चांद भी अचानक
कुछ अधिक ही
सुंदर लगने लगा! 
और सारा आकाश
एकदम व्यवस्थित हो गया
फिर तुम करीब आकर
मेरे कांधे पर हाथ रख
बैठ गये!
मैं आश्चर्य की प्रतिमूर्ती बनी
कभी आकाश को, कभी तुम्हें
कभी तुम्हारे सुंदर हाथों को
देखती ही रह गयी! 

कुछ तो हुनर है, 
तुम्हारे हाथों की छुअन में
कि हर चीज़ सज जाती है
सलीके से! 
चाहे वो ज़िन्दगी हो या आकाश !

"तनु"

Friday, 11 August 2023

कवच

क्षमा करना शत्रुओ!
___________________

सच बतलाने में हर्ज है क्या ? 

मेरा दोष केवल इतना ही है कि ऊब जाती हूं शत्रुओं से 

क्षमा करना शत्रुओ, कि जो ये कांस्य के कवच पहनकर कुरुक्षेत्र में खड़े हो, तुम्हारी पसलियों पर कितने चुभते नहीं होंगे!
जबकि पूर्व भाद्रपद नक्षत्र के बावजूद आज इतनी उमस ! 

बहुधा ऊब जाती हूं प्रेम करते करते फिर यह तो घृणा है!
क्योंकि मैंने देखा है कि तुम तो दिखावे में जीते हो, तुम्हें किस बात की कमी है। 
तुमने मेरा ही तो हाथ थाम कर मुझे डुबोया है। 

ऊब जाती हूं लड़ते-लड़ते, जबकि मैंने ही किया हो संघर्ष का शंखनाद और रणभूमि में दोनों दिशाओं में सजी हो अठारह अक्षौहिणी सेनाएं, मेरे अगले प्रहार की विकल प्रतीक्षा में!
और ऊब जाती हूं मित्रता के प्रसार से फिर यह तो शत्रुता है!

इसमें दिशाशूल का दोष नहीं. मत कोसो कुमुदनाथ सान्याल के पंचांग को, जिसमें भ्रामक सूचनाएं ! 

दोष तो मेरा है कि ऊब जाती हूँ कि तुम्हारी कुटिल चालों से। 

याद है घर की बूढ़ी की मौत उसकी अलमारियां खगालते तुम लज्जाहीन हो जाने को आतुर। 
ब्रेड के मक्खन के लिए लपलपाती तुम्हारी जीभ। 
उन्नीस सौ निन्यानवे में अध्यापिका थी . पढ़ाती थी कई विषय, पर तुम मेरा प्रमुख विषय बन गये हैं। 
तुम्हारे लालसा, लालच की कोई सीमा नहीं। 

जब तक प्रेमी थी, लिखती थी प्रणय का आकुल अंतर ! 

दो हज़ार चार में योद्धा का रूप धरा। कोहनियां छिल गईं, दिखलाऊं क्या ? 

यह दो हज़ार सत्रह है और मुखपुस्तक पर लिख रही हूँ , जबकि प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा कर रहे हैं शत्रुगण. 

क्षमा करना शत्रुओ, कि जो ये प्रत्यंचा खींचे कुरुक्षेत्र में खड़े हो, दुखने लगे होंगे तुम्हारे कंधे! 

रविवार है, तुम धनुष रख दो! 

मायावी था "मारीच". नानाविध रूपों में आता था. 

मायावी मैं भी हूं, किंतु ऊब जाती हूँ अतिशीघ्र !

ऐन अभी मुझे "प्यासा" का गुरु दत्त याद आ रहा है, जिसने जयघोष के निनाद के बीच कह दिया था । 

"मैं वो नहीं हूं, जो आप लोगों ने मुझे समझ लिया है !"

और अगले ही क्षण हाहाकार में बदल गया था जयघोष, भर्त्सना का रूप धर चुकी थीं प्रशस्तियां ! 

भीड़ आपको जिस नाम से पुकारे, आत्मघाती होता है भरी सभा में उससे इन्कार ! 

गुरु दत्त ने नींद की गोलियां अवश्य खाई थीं, किंतु वह आत्मघाती नहीं था।
वो केवल गुरु दत्त होने से ऊब गया था ! 

जैसे औलिया होने से ऊब गया था निज़ामुद्दीन जब उसके घर के पूर्वी दरवाज़े से भीतर घुस आया था सुल्तान ! 

मैं अपने आप से ऊब जाती हूँ, क्षमा करना शत्रुओं !

और जो आरोप तुमने मुझ पर लगाए हैं, उन्हें एक जिल्द में जोड़कर छपवा लेना ऐय्यारी उपन्यास और बेच आना मंडी में । 

क्योंकि मुफ़्त नहीं मिलते हैं कांसे के कवच।
मुफ़्त नहीं मिलता है पसलियों पर घाव !
खीसे में कौड़ी होगी तो सौदों का सुहाता रहेगा !

2017  💐

Saturday, 29 July 2023

क्षितिज

क्षितीज का छोर

उस गरजते समुद्र पर
लौटती लहरों का ठंडापन
विहंगम सा पट जो खुला है
           अंतिम क्षितिज तक
बेचैन मन का कोई कोना
स्थिर करता है
मैं आत्महत्यों तक वहाँ पहुँचती हूँ
विषाद के विचलित दिन लिए
                    उद्विग्नता के पल
हिलोरे सागर पर वाष्प से हो चले हैं
विलुप्त, विस्मृत यह आकर्षण है...
                        मौन आकर्षण
तिर जाती है आत्महत्या स्वयं ही,
मगर यह आनंद नहीं शून्य सा है
जिसमें नीरवता है, रिक्तता है।
                   प्रेरणा है वैराग्य सी,
जिसके विपरीत प्रभाव से पुनः पुनः
लौट पड़ता है जीवन पीछे
भर जाता है एक और आत्महत्या
तिरोहित होने की एक और
                       साधना उस तक
जो गरजता है दिगंत तक,
क्षितिज के एक छोर से दूसरे छोर तक

Monday, 3 July 2023

स्त्री

जिन लोगों के रास्ते फौलाद के सींखचे हो, वे लोग चाहे कुछ न कर सकते हों, पर किसी दिन उन सींखचों को तोड़ देने का सपना जरूर देख सकते हैं।

पर मेरे  रास्ते में तो लहू-माँस के सींखचे लगे हुए हैं...

एक औरत अपनी कोख से जब लहू-माँस को जन्म देती है, तो वह उन सींखचों के पीछे खड़ी होकर उन्हें तोड़ देने का सपना भी नहीं ले सकती ! 
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Friday, 30 June 2023

समीकरण

#ज़िंदगी

मांस का धड़कता, कुछ सौ ग्राम लोथडा़
भारी होकर एक कोने में , पसलियों में टकराता, अटका सा, पीड़ा देता हुआ !
बाज़ुओं में रक्त प्रवाह भी ठंडी तकलीफ देता हुआ प्रतीत होता है ! 
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एक सीध में 
जब रखे गए तर्क और तक़ाज़े 
दलीलें और जिरहें
तो उनको 
मान लिया जाए ? 

और कदाचित् 
कोई ग्लानि ही रही होगी मन में 
कि उन औरों से अधिक त्वरा से माना
जिन्होंने कभी चाही ही नहीं थीं 
कोई सफ़ाइयां.

स्वयं से कहा-
मैं स्वांग करने को विवश हूं!
और तब ऐसा स्वांग रचाया 
कि उसी पर कर बैठे 
पूरा भरोसा!

फिर आत्मरक्षा में कहा-
और विकल्प ही क्या था?
और यह सच था कि कोई और 
सूरत नहीं रह गई थी
किंतु दु:खद कि इतने भर से
मरने से मुकर गए 
अकारण के दु:ख! 

दुविधा ये थी कि 
एक सीध वाले समीकरणों को 
सत्यों की तरह स्वीकार 
कर लिया जाता

जबकि अधिक से अधिक
वो इतना ही बतलाते थे कि
वरीयता का क्रम क्या है!

और ये कि 
क्या क्या बचाने के लिए 
मुफ़ीद रहेगा नष्ट कर देना 
क्या कुछ और!

तुम या मैं...

क्यों, क्यों नहीं सत्य कह सकते हैं।
जबकि झूठ सजा सँवार कर कहा।
क्या पहले नहीं बताया कि छला गया है कई बार अब और नहीं, बस! 

और अब... 
घटनाक्रम और मैं स्वांग करने के लिए लाचार हूँ ।

क्यों, क्या सिर्फ इसलिए कि देखते हैं सब ?

तुम्हारी चाहत

अलख

थोड़ा थोड़ा करके,
सचमुच मैंने पूरा खो दिया है तुम्हें,
जिद्दी हो तुम,
पछतावा है मुझे तुम्हें खोते देखकर भी...
कुछ कर न पायी! 
आँखे सूनी हैं मेरी, 
जिन्हें नहीं भर सकती असंख्य तारों की रोशनी भी।
और न ही है कोई हवा मौजूद इस दुनिया में।
जो महसूस कर सके उपस्थिति तुम्हारी।
एक भार जो दबाए रखती थी
हर पल प्रेम के आवेश को,
उठ गया है, तुम्हारे न रहने से।
अब कितना हल्का महसूस करती हूँ मैं
तिनके की तरह
पानी में बहते हुए।
और फिर रूप बदल कर तुम्हारा आना
शांत झील में पत्थर मार दिया हो जैसे ।।।

An old writing...
Written in 2009

Saturday, 24 June 2023

पीठ जलाता सूर्य

पीठ पर प्रखर सूर्य से लंबवत बढ़ती परछाई... 

मैं नाप चुकी गांव, शहर, मैदान, सागर और आकाशगंगाओं के व्रहदतम आकार ।

 युगों से घोर कृष्ण पक्ष,

अवतरित पीठ जलाता.!!! 
सूर्य भूल चुका पश्चिम अवहोरण ।
 लौटकर अवश्य .. 
अपने अंतिम व्रत पर करेगा पूर्ण ग्रहण ! 

सूर्य निगल लेगा तुम्हें।। 

और अतंत तुम्हारे ताप के लंबवत अवरोध से बढ़ती परछाई मेरी।.   ...... "तनु"