अलख
थोड़ा थोड़ा करके,
सचमुच मैंने पूरा खो दिया है तुम्हें,
जिद्दी हो तुम,
पछतावा है मुझे तुम्हें खोते देखकर भी...
कुछ कर न पायी!
आँखे सूनी हैं मेरी,
जिन्हें नहीं भर सकती असंख्य तारों की रोशनी भी।
और न ही है कोई हवा मौजूद इस दुनिया में।
जो महसूस कर सके उपस्थिति तुम्हारी।
एक भार जो दबाए रखती थी
हर पल प्रेम के आवेश को,
उठ गया है, तुम्हारे न रहने से।
अब कितना हल्का महसूस करती हूँ मैं
तिनके की तरह
पानी में बहते हुए।
और फिर रूप बदल कर तुम्हारा आना
शांत झील में पत्थर मार दिया हो जैसे ।।।
An old writing...
Written in 2009
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