मांस का धड़कता, कुछ सौ ग्राम लोथडा़
भारी होकर एक कोने में , पसलियों में टकराता, अटका सा, पीड़ा देता हुआ !
बाज़ुओं में रक्त प्रवाह भी ठंडी तकलीफ देता हुआ प्रतीत होता है !
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एक सीध में
जब रखे गए तर्क और तक़ाज़े
दलीलें और जिरहें
तो उनको
मान लिया जाए ?
और कदाचित्
कोई ग्लानि ही रही होगी मन में
कि उन औरों से अधिक त्वरा से माना
जिन्होंने कभी चाही ही नहीं थीं
कोई सफ़ाइयां.
स्वयं से कहा-
मैं स्वांग करने को विवश हूं!
और तब ऐसा स्वांग रचाया
कि उसी पर कर बैठे
पूरा भरोसा!
फिर आत्मरक्षा में कहा-
और विकल्प ही क्या था?
और यह सच था कि कोई और
सूरत नहीं रह गई थी
किंतु दु:खद कि इतने भर से
मरने से मुकर गए
अकारण के दु:ख!
दुविधा ये थी कि
एक सीध वाले समीकरणों को
सत्यों की तरह स्वीकार
कर लिया जाता
जबकि अधिक से अधिक
वो इतना ही बतलाते थे कि
वरीयता का क्रम क्या है!
और ये कि
क्या क्या बचाने के लिए
मुफ़ीद रहेगा नष्ट कर देना
क्या कुछ और!
तुम या मैं...
क्यों, क्यों नहीं सत्य कह सकते हैं।
जबकि झूठ सजा सँवार कर कहा।
क्या पहले नहीं बताया कि छला गया है कई बार अब और नहीं, बस!
और अब...
घटनाक्रम और मैं स्वांग करने के लिए लाचार हूँ ।
क्यों, क्या सिर्फ इसलिए कि देखते हैं सब ?