Adhyayan

Sunday, 2 October 2022

मन का डर

क्यों तुझे  डर है कि तू पिघल कर न बन जाए कोई शिला

जाते जाते तुम स्त्री का स्त्रीत्व विचित्र रूप से क्यूँ ले जाते हो,
वो बनना संवारना चाहती है तो उसे अज़ीब लगता है!

तुम चाहे दुनिया से चले जाओ या यूँ ही आगे बढ़ जाओ, स्त्री को एक ठहराव दे जाते हो!

मजबूत हो जाती है वो!
उसका फोन आया , कल जाना है न..
क्या पहना जाए, मेरे पास तो कुछ रहता भी नहीं है न, आप जानते ही हो!

स्वयं जूझते हुए आगे बढ़ गयी तो क्या यहाँ तो हजारों लड़कियां अपनी अंदर की लड़ाई लड़ रही हैं।

कहा कि साड़ी पहन लो या अच्छा सा लॉंग कुर्ता, जीन और कुछ फंकी ज्वैलरी ।

कहते ही वह आश्चर्य मिश्रित रूप से ऊहापोह की स्थिति में आ गयी वो।

क्यों... क्या सजना संवरना नहीं चाहती है वो.?
उसकी आशाएं जिंदा है अभी। 

चाहती है, पर उसने जिसे आधार मान लिया था वो बीच रास्ते में उसका हाथ छुड़ा कर सदा के लिए उसे अकेला करके चला गया।

जूझना पड़ा उसे हालातों से, अपनी भावनाओं से अब बमुश्किल होश आया है उसे तो पहला शब्द था कि हाँ आगे बढ़ना चाहती है वो।

अब मन बनाया है लेकिन अब उसे, उसके जैसा कोई नहीं चाहिये जिससे वो सबसे ज्यादा प्रभावित थी, दिलोजां से चाहती थी।

सोच रही हूँ कि कैसा प्यार था कि जिसके बिना रह नहीं सकती अब भी यादों में है उसी के जैसा कोई भी नहीं चाहिए।
सिर्फ़ आदत हो गई थी उस घुटन में रहने की। 
अंदर तक प्रेम के बहाने उसी प्रेमी के द्वारा उसके कुचले, दबे अहसासों से अब तक डरी हुई है वो ,
हाँ, समझ में आती है उसकी बात।

और अपने से, अपनों से, परायों से लड़ते- लड़ते, लिहाज़ करते, समाज की मर्यादा निभाने की कोशिश उसे मर्दाना ही तो बना दिया इन परिस्थितियों ने।

लड़ रही है वो।
कोशिश मत कर, बस हो जाने दे जो हो रहा है।
बह जा हवा के साथ।

कष्ट अवश्यंभावी है, पर पीड़ित होना स्वेच्छा पर निर्भर है।
तेरा स्त्रीत्व ही तेरा अस्तित्व है।                             
                 "तनु " 3/9/2019

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