वो चिड़ियों के लिए पानी रखती थी
थोड़ा अहाते में थोड़ा अटारी पर
और थोड़ा सा आंख में अपनी।
चैत्र लगते ही यह उपक्रम!
निदाघ का दाह-दहन
भले दूर हो अभी
कितु जब दिवस तपने लगता
सूरज के एक बांस चढ़ते ही
अलगनी पर फट्ट से सूखने लगते अंगोछे
और तृषा से विकल मूर्च्छित हो
गिरने लगते पाखी
जैसे गाछ से गिरता हो पका फल
वो उठती और जलपात्र में
ढुरका देती शीतल नीर।
प्राण बसता है जहां कंठ में बसती है तृप्ति
पुण्य बसता है बसती है प्रीति
वो बूझती थी यह रहस्य
चिड़ियों जैसा मन था उसका चिड़ियों सी ही निकलंक
दोपहर के दुर्दैव में जल का शीत थी वह
जिसमें रात्रि के तिमिर की गंध
मिट्टी के अंत:स्तल का गुह्य रूप
और तोष का आशीष।
चिड़ियों के लिए वो रखती थी पानी
थोड़ा बरगद के कोटर में थोड़ा दुछत्ती की छत पर
और थोड़ा सा आंख में अपनी।
"सुशोभित सिंह शेखावत "
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