Adhyayan

Saturday, 23 November 2019

नमक

चाहे सात समंदर पार दूर चले जाना, चाहे फिर किसी को प्यार करना लेकिन यह मत भूलना कि तुम्हारी देह ने एक देह का नमक खाया है ! 

शैलजा 

Tuesday, 19 November 2019

स्त्रीत्व

क्यों तुझे  डर है कि तू पिघल कर न बन जाए कोई शिला

जाते जाते तुम स्त्री का स्त्रीत्व विचित्र रूप से क्यूँ ले जाते हो,
वो बनना संवारना चाहती है तो उसे अज़ीब लगता है!

तुम चाहे दुनिया से चले जाओ या यूँ ही आगे बढ़ जाओ, स्त्री को एक ठहराव दे जाते हो!

मजबूत हो जाती है वो!
उसका फोन आया दी, कल जाना है न...
क्या पहना जाए, मेरे पास तो कुछ रहता भी नहीं है न, आप जानते ही हो!

मै स्वयं जूझते हुए आगे बढ़ गयी तो क्या यहाँ तो हजारों लड़कियां अपनी अंदर की लड़ाई लड़ रही हैं।

मैंने कहा कि साड़ी पहन लो या अच्छा सा लॉंग कुर्ता, जीन और कुछ फंकी ज्वैलरी ।

कहते ही वह आश्चर्य मिश्रित रूप से ऊहापोह की स्थिति में आ गयी वो।

क्यों... क्या संजना नहीं चाहती है वो.?
उसकी आशाएं जिंदा है अभी।

चाहती है, पर उसने जिसे आधार मान लिया था वो बीच रास्ते में उसका हाथ छुड़ा कर सदा के लिए उसे अकेला करके चला गया।

जूझना पड़ा उसे हालातों से, अपनी भावनाओं से अब बमुश्किल होश आया है उसे तो पहला शब्द था कि हाँ आगे बढ़ना चाहती है वो।

अब मन बनाया है लेकिन अब उसे, उसके जैसा कोई नहीं चाहिये जिससे वो सबसे ज्यादा प्रभावित थी, दिलोजां से चाहती थी।

सोच रही हूँ कि कैसा प्यार था कि जिसके बिना रह नहीं सकती अब भी यादों में है उसी के जैसा कोई भी नहीं चाहिए।
सिर्फ़ आदत हो गई थी उस घुटन में रहने की।
अंदर तक प्रेम के बहाने उसी प्रेमी के द्वारा उसके कुचले, दबे अहसासों से अब तक डरी हुई है वो ,
हाँ, समझ में आती है उसकी बात।

और अपने से, अपनों से, परायों से लड़ते- लड़ते, लिहाज़ करते, समाज की मर्यादा निभाने की कोशिश उसे मर्दाना ही तो बना दिया इन परिस्थितियों ने।

लड़ रही है वो।
कोशिश मत कर, बस हो जाने दे जो हो रहा है।
बह जा हवा के साथ।
तेरा स्त्रीत्व ही तेरा अस्तित्व है।

Wednesday, 18 September 2019

#ToLet बीकानेर, व्यास कालोनी में घर के बाहर शर्मा सरनेम की नेम प्लेट लगी थी, मतलब किन्हीं शर्मा जी लोगों का घर था। बाहर टू-लेट का काग़ज़ चिपकाया हुआ था। पढ़कर अंदर गई तो देखा... घर में गेट के अंदर ही बोगनवेलिया की मोटी बेल थी। बरामदे में गेट के अंदर दाखिल होते हुए दाँयी ओर एक चौकोर पिलर बना हुआ था। पीलर के चारों ओर जमीन पर कुछ पाँच छ्ः इंच की जगह छोड़ी गयी थी उसी पर ये बेल लगी थी। बेल पिलर के सहारे छत पर बढ़ गयी। नीचे दायीं ओर ही कुछ जमीन छोड़ रखी थी जिसमें कुछ हल्की घास थी और कुछ गमले लगे थे। जिसमें कोई तारतम्य नहीं था, यूँ लगता था कि घर के मालिक को पौधों का शौक तो है लेकिन देखरेख करने में असमर्थ हैं। खैर अंदर आकर घंटी बजाई तो औसत कद की एक आंटी आई। उनसे नमस्ते कहते हुए पूछा - आंटी आपके घर के बाहर To-Let लिखा हुआ है, क्या आपका रूम अब भी खाली है ? हाँ हाँ, है तभी तो लिखा हुआ है ! जी, क्या आप हमें दिखाएंगे? कौन ले रहा है, तुम...? जी... हाँ, हम ही लेंगे! कितने लोग हैं ? जी, हम दो! कौन - कौन जी...वाइफ हसबैंड आँटी बाहर को देखते हुए, कौन वाइफ ? कहाँ है हसबैंड ? जी हमें ही चाहिए, अगर आप दिखा दें तो हसबैंड कल आ जाएंगे, अभी अॉन ड्यूटी हैं। ड्यूटी, कहाँ, काम करते हैं ? मन ही मन - देर हो रही है आप कमरा तो दिखाइये पहले। फिर देर शाम हो जाने पर घर जाने का रास्ता भूल जाऊँगी। जी एयरफोर्स में हैं। अच्छा...तुम लग तो नहीं रही हो ? इतनी जल्दी शादी क्यों कर ली? जी... हाँ, वो, वो हाँ शादी जरा जल्दी। हमारे यहां हो जाती है। बहुत पहले एक बार मैंने पहाड़ की अम्मा से एकबारगी उलाहने भरे शब्दों में कहा था कि आप लोगों ने जल्दी घर से निकाल दिया। तो बड़े लाड़ से अपने दही मक्खन की महक ओढ़े हुए मेरे सर पर हाथ धरे अपने अँक में भर कर बोली - बाबू.... दूध समय पर बिक जाये तो दही कौन जमाता है ? क्या कहूँ, उनकी तरफ़ देखकर सोचा, अरे ये मतलब क्या? कुछ भी। खैर आँटी जी ने घर की बाँयी ओर से साईड की गैलरी में ले जाते हुए दायीं तरफ़ का दरवाजा खोला। अंदर जाकर देखा तो बहुत ही बड़ा हवादार, हल्के पीले रंग के मार्बल का फर्श और साफ़ सुथरा कमरा था। नया ही था। आपका नया घर है आँटी? हाँ चार पांच साल पहले ही बनाया है। अब बहू बेटा यहां नहीं रहते हैं तो सोचा कि किराये पर उठा दूँ। तेरे अंकल बाहर जाते हैं तो अकेलापन महसूस होता है। मेरे अंकल, मतलब... ये कमरा हमें मिल सकता है अब कहीं और खोजने के लिए नहीं जाना पडेगा। आँटी जरा कर्री टाईप की हैं लेकिन इतना होना बनता है ये भी तो हमें नहीं जानती हैं। आगे अंदर कमरे से बाहर निकल तो एक तरफ बाथरूम और दूसरी ओर किचन है। सुन लड़की, हम लहसुन प्याज नहीं खाते हैं और तुम अंडा मीट तो नहीं खाते हो? जी, नहीं... अंडा वगैरह नहीं खाते हैं लेकिन प्याज लहसुन खाते हैं। अच्छा, ठीक है उस वक्त मेरा ये दरवाजा बंद कर दीजो। खुशबू नहीं आनी चाहिए। अच्छा... खुशबू..... ? खुशबू कैसे नहीं आएगी? उनसे नहीं कहा, लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है ? लहसुन, प्याज़ के तड़के से तो पूरा घर महक जाता है और ये आँटी का तो लगा हुआ कमरा है। ठीक है आँटी, हम बिना प्याज़ के बनाने की कोशिश करेंगे। बोली कब से आओगे तुम लोग? जी आप कल कहें तो शिफ्ट कर लेंगे। हाँ आ जाओ, तुम एक बार में प्याज नहीं डालोगी कह रही हो। आ जाओ तुम! थैंक्यू आँटी, कल दोपहर तक आ जायेंगे। अच्छा लगा, सही घर था। पानी की टंकी भी अपनी तरफ ही है तो पता रहेगा कि कितना पानी है वगैरह वगैरह। अगले दिन शिफ्ट होने के बाद किचन सैट किया। रूम में बैड, चीयर्स टेबल वगैरह सैट किया। कार्डबोर्ड की पेटीयों से सामान निकाल कर जमाया। अखबार बिछाकर किताबों को एक शेल्फ में करीने से लगा दिया। सही ऊँचाई पर है सारी किताबें दिख रही हैं। धीरे धीरे आँटी घुल मिल गयी, इतना ज्यादा कि बिना कुछ पूछे न कुछ काम करती न करने देती। ए तन्नू किधर है रे तू? देख ये चादर बेचन आया है देख जरा कैसा है? ओह हो, कह भी नहीं सकती कि साबुन के सने हाथ हैं, बाथरूम में हूँ कपड़े धो रहे हैं। फिर कहोगी कि जब नलके में पानी आता है तब कपड़े धोया कर। टंकी का पानी मत बर्बाद करे कर। बेकार में मोटर चलानी पडे़ है, बिल ज्यादा आता है। लेकिन, हाँ जी आई... कहते हुए हाथ धोए और फिसलते बचते बरामदे में पहुँची तो बोली चादर देख दे। छोटे भैया के कमरे में चाहिए। मैं उनकी ओर देखते हुए, किसके छोटे भाई, छोटे भैया भी हैं क्या घर में ? हाँ तुझे देखने की फुर्सत मिले तब देखे तू, सारा दिन किताबों में सिर खपाये रहती है। रे क्या करेगी यो इत्ता पढ़ाई करके। अब तो ब्याह भी हो गया थारा । कोई जवाब नहीं सूझता। कह देती, बस यूँ ही पढ़ती हूँ। ये... ये पर जोर देते हुए बोलती थी आँटी ये..... यूँ कौन कर पढ़े है रे इत्ता ? अब तो थारे टाबर टूबर (बच्चे) हो जाए वा पढ़ेंगे। मन में कहती... वाऊ... राईट हाँ अब यही अचीवमेंट तो तो बचा है लाईफ में । चादर देखने के बाद कहा ये चादर सही है आँटी। इसे देखिये। चादर समझ आ गयी ले ली गयी। थैंक गॉड! आँटी कपड़े धो रही हूँ अभी आती हूँ। अरे रे यो शाम के बखत क्यों धो रही है? (अपनी बात भूल जाती थी आँटी कि जब पानी आए तब कपड़े धोना।) एक दिन आवाज़ आई, रे सुन तन्नू । ओ तन्नू। जी... आई आँटी। लेकिन आँटी लगातार। तन्नू रे, अरी ओ तन्नू। अपने नाम को इतने बार सुनते सुनते मझे हो जाता कि आखिर तन्नू क्या है.? मतलब लगातार पुकारो तो एक बार को वैराग्य आ जाता है सच्ची। ओह हो अरे साँस तो ले लिजिए आँटी। पहुंचने में वक्त लगता है। खैर... देख जरा ये बेल में क्या चमक रहा है? मै यहां कुर्सी पर बैठी तो कुछ दिख रहा है मेरा हाथ नहीं पहुंचा। अच्छा देख चमक रहा है, कहीं साँप न हो। मैं हाथ बढ़ाया था कि उछल कर पीछे कूद मार दी। क्या साँप ? तो हाथ से कैसे निकालें। साँप तो काट देता है आँटी। रे छोरी तैन्नै क्या लागे कि मनै ठा को नी कै यै काट लैवे है। मैंने कहा... तो काएं कैण लाग रै हो आँटी, मै कैसे काढ़ दूँ इसनै? काट लेवैगा तो? क्या करोगे थै भी। अच्छा देख। जरूरी को न है कि साँप ही होगा। मैं तो एहतियात के तौर पै कहे हूँ तन्नै। ओ बावरी सुन, तू तो डर से घणी चोखी आपणी बोली बोलन लाग गयी रे। मैंने भी गौर किया कि हाँ, मैं तो इनके जैसे बोलने लग गयी। आँटी जोर जोर से हँसने लगी। डर तै राजस्थानी निकल गयी रै तन्नू की। मैं आवक। फिर कहा अच्छा... लाइये कुर्सी दीजिए। अच्छा अब हटो आप मैं पेड़ हिला रही हूँ वो जो होगा पता चल जाएगा। और उधर आँटी कमर पकड़ कर हंसी में ही लोटपोट। खैर... पेड़ की डाली पकड़ कर हिलाई तो छन छन करती हुई कई चम्मच और दो तीन काँटे गिरे। अरे रे, रे.... आँटी की हँसी गायब अब आश्चर्य में फिर तपाक से गुस्से में बदल गयी। और लगी घूरने। मुझे समझ नहीं आया कि अब क्या हुआ और चम्मच का पेड़। इसमें चम्मच कैसे? क्या चम्मच का पेड़ होता है? खुद से ही कहा, अरे चुप पागल... ओह ये मुझे घूर क्यों रही हैं, क्या मैंने ये यहां रखे ऐसा सोच रही हैं। लेकिन.... अचानक, वो चम्मचों की ओर लपकी, रे देख तो... तन्नू! कब से चम्मच कम होती जा रही है और मैं सोचूं कि तेरे अंकल या भैया ने अचार या घी की बरनी में गेर दी होगीं। मैंने कहा, ये आपकी हैं ? लेकिन यहाँ क्यों रखी है ? ओह थारी समझ में इत्ती सी बात को नई आती। यो कामवाली का काम है। जाते बखत ले जाती वो। वो तो आज दिन की चाय के बाद मैं वठ्ठै ही बैठी रै गयी, तो लै न स्की वो। तभ्भी सारे चमचा गायब हो गए। हे भगवान। कहाँ साँप और कहाँ चम्मच। हद है। अच्छा अब मैं जाऊँ कपड़े धोने? शाम को न धोया करे ओ छोरी। ठंड लग जाएगी तन्नै। आ हा हा.... दौड़ते हुए अपने कमरे की ओर गयी और खुद ही खुद मैं उनको जबाव दे रही थी। शाम को न धोया कर छोरी। और जो थारा बिजली का बिल आ जाएगा तब। जब देखो, दौड़ाती रहती हैं। और बाथरूम में आकर नल खोला तो पानी नहीं आ रहा था। अब कपड़े का ढेर घूरने की बारी मेरी थी। या कपड़े मुझे घूर रहे थे। क्या करना चाहिए था? कह देती कि नहीं आ रही हूँ । नहीं कह पायेगी, वो भी तो अकेली है बेचारी। अभी तो ऐसे ही चलेगा!

Wednesday, 6 February 2019

प्राण

वो चिड़ियों के लिए पानी रखती थी
थोड़ा अहाते में थोड़ा अटारी पर
और थोड़ा सा आंख में अपनी।

चैत्र लगते ही यह उपक्रम!
निदाघ का दाह-दहन
भले दूर हो अभी
कितु जब दिवस तपने लगता
सूरज के एक बांस चढ़ते ही
अलगनी पर फट्ट से सूखने लगते अंगोछे
और तृषा से विकल मूर्च्छित हो
गिरने लगते पाखी
जैसे गाछ से गिरता हो पका फल
वो उठती और जलपात्र में
ढुरका देती शीतल नीर।

प्राण बसता है जहां कंठ में बसती है तृप्त‍ि
पुण्य बसता है बसती है प्रीति
वो बूझती थी यह रहस्य
चिड़ियों जैसा मन था उसका चिड़ियों सी ही निकलंक
दोपहर के दुर्दैव में जल का शीत थी वह
जिसमें रात्रि के तिमिर की गंध
मिट्टी के अंत:स्तल का गुह्य रूप
और तोष का आशीष।

चिड़ियों के लिए वो रखती थी पानी
थोड़ा बरगद के कोटर में थोड़ा दुछत्ती की छत पर
और थोड़ा सा आंख में अपनी।

"सुशोभित सिंह शेखावत "

Tuesday, 5 February 2019

#इंसान /#जानवर

याद रहता है कि बचपन से ही अपने होने को लेकर मैं असहज महसूस करती थी, हर वक़्त कि, मैं क्यों हूँ और हमें क्या करना है या ऐसे ही जिंदगी चलती है क्या ?
हम सामान्य बातों के लिए तर्कसंगत तरीके से सोचते हैं और असामान्य बातों के लिए असंगत रूप से।
हमें अपने जानने की सीमा बढ़ानी चाहिए और कभी अनजाने बातों के लिए गहरे में उतरना चाहिए।
मानवता का मतलब मानवीय मूल्यों और गुणों श्रेय ईश्वर को देना होगा।

मैं घंटों बाग में पानी देते हुए तितलियाँ ढूंढती और रंग बिरंगे फूलों के बीच ज्यादा रहती वही खाना चलता वही किताबें होती।
आमों के पेड़ के नीचे ठिकाना होता था।

ये असहज व्यवहार नहीं बल्कि अपनी पसंद में निर्भर करता है।
मुझे साफ सुथरा प्रैजेन्टेबल रहना अच्छा लगता था लेकिन तब चूड़ी बिंदी जैसी महिला सजग अनुभूति कभी नहीं रही।
मेरी भाभियाँ किसी शादी के आने से पहले चौकस हो जाती थी ब्यूटी पार्लर जाना, मैचिंग कपड़े, सैंडल आदि आदि जो भी आवश्यक सामान होता उनकी गप्पें और खरीदारी शुरू हो जाती।
वो बाजार से सामान लाते और फिर घर में सब घेर कर देखते और अब बाकी क्या क्या है इस बात का विचार विमर्श होता।
मुझे उनको देखकर अच्छा लगता सामान में अपना इन्टट्रैस्ट दिखाती और जरूरत होती तो अपनी बात भी कहती।
भाभीजी लोग कहते कि तुम क्या पहनोगे या चलो ये लो आदि।
मैं कहती नहीं भाभी जी, इतना लकदक।
नहीं हो सकता।
अपना तो सूट या जींस ही सही है या फिर जाऊँगी नहीं।
यूँ ही अच्छा समय चलता रहता।

फिर समय पलटा और विपरीत परिस्थितियों ने कुछ कहना या न कहना बंद करा दिया।
कोई कैसे समझ सकता है जब तक उसे उसका अहसास न हो।
हाँ, सालों साल चलते रहने वाले प्रकरण में उस वक्त की याद आती जब सब साथ में खिलखिलाकर हँसते थे, खाते थे।

कई बार देखा कि लोग मिलते लेकिन परिस्थितिवश वो सामने हँसने मुस्कुराने से कतराते कि यहाँ इन हालातों में कैसे कोई हँसे ?
धीरे धीरे ये होने लगा कि अगर हम हँसे तो लोग मन में आश्चर्य करते कि अरे...
तुम कैसे हँस सकते हो ?
तुम्हारे तो हँसने के सारे रास्ते बंद हैं।
तुम्हारा जो कुछ भी है अब हमारा है।
अब मुझे सच में हँसी आती, मैं उन सबको देखते हुए अंदर से खूब हँसती कि क्या तुम इंसान हो ?

तब उन दिनों "जिमी" (फिमेल कुत्ता) हमारी दुनिया में आई और वो ऐसा महसूस कराती थी कि आश्चर्य होता कि ये जानवर कैसे हो सकती है ?
हर किस्म के अहसास उसके अंदर है वो देखती कि सब दुखी हैं तो खाना नहीं खाती या नहीं दे रहे तो माँगती नहीं।
वो खुशी का इजहार भी करती है।
बात जिमी के विषय में नहीं है अहसासों की है।
तुम लोग पहले सहानुभूति और दर्द महसूस करते थे और अब उस दर्द और सहानुभूति का अहसास करा कर अहसान जताते हो और उन दर्द से से निकलने नहीं देते हो।

"शिबो शिब "जैसे खुद ब खुद इजाद कर दिये गये शब्द...

तब घटित होती जाती घटनाओं में मैने समझा कि घटनाओं के बारे में चिंता होती है लेकिन चिंतित नहीं होना चाहिए।
और उसका मतलब समझने की कोशिश करनी चाहिए।

तुम स्वयं रास्ता निकालो क्योंकि तुम्हारी और मेरी जिंदगी अलग है नकल मत करो।
मैं उनके बारे में सोचती कि तुम्हारे सहारे हैं कोई न कोई साथ देने वाला है।
मुझसे होड़ मत करो।
और अपने से कहती सावधान।गलत को गलत कह दो।
कोई भी वह व्यक्ति किसी और के साथ भला हो सकता है और तुम्हारे साथ नहीं।

हम इस कठोर दुनिया में बचे हुए हैं तो सिर्फ योग्यता के आधार पर नहीं बल्कि अपनी इच्छा शक्ति के बलबूते पर।
कि किसी जिम्मेदारी को आपने खुद ओढ़ लिया है और अब जरूरत है उसके बारे में सोचने की उसे पूरा करने की।
हुआ है ऐसा कि जब किसी ने कहा कि वह ऐसा कह रहा था तब अंदर से  जोर से हँसी आई कि तुम बता रहे हो या तुम्हारे अंदर का जानवर बता रहा है कि तुम पूछ रहे हो।
कहती नहीं हूँ लेकिन कौन हो तुम ? क्या हो तुम ?
बेजुबां हो तुम तो....
तुम्हारा बातों को जानने की कोशिश का लालच दिख रहा है इतना मत गिरो कि कभी नजरों से न उठ पाओ।

अपराधी भी अपराध करने के बाद सोचता है। तुम कहाँ और कितने गिरोगे ?
क्या मैं तुम्हारी न कह सकने वाली बात नहीं पहचान पा रही, बिल्कुल पहचान रही हूँ।
गलत विचार हैं रूक जाओ वही।

जानवरों के पास आवाज होती तो देवदूतों की जबान में बात कर सकते थे।
मेरी दुनिया में तो फरिश्ते रहते हैं।
जानवरों के प्रति हमारा व्यवहार किसी नैतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण नहीं होता लेकिन मानव जाति के बौद्धिक विकास के लिए महत्वपूर्ण हो जाता।

हम इस दुनिया में बचे हुए हैं इसलिए नहीं कि योग्य है बल्कि इसलिए कि हम आपको, इस प्रकृति को और पशुओं को प्यार करते हैं।

मेरे एक दोस्त ने हाल ही में कहा था कि "तनु" तुमने तब सबको जवाब देना चाहिए था और मैंने कहा कि तब मेरे पास उससे भी ज्यादा जरूरी काम था।
आज जिस विषय पर चर्चा कर रहे हैं न, ये नहीं कर पाते।

तब उनको विचारों में खो जाते हुए देखा मैंने।
उनकी आँखों की पुतलियों सिकुड़न से उन्हें सोच में पड़ते हुए देखा मैंने।
और फिर मुझे ही उन्हें वापस लाना पड़ा, अरे ज्यादा मत सोचिए, सब ठीक है अब।

हाँ, ठीक तो है पर कैसे किया होगा ?
हम सोच नहीं पाते और...

मैं इसलिए नहीं लिख रही कि किसी को कुछ समझाना है बल्कि इसलिए कि किसी एक को, इसको पढकर कोई एक परिस्थिति में हौसला मिल सकता है और बुरे से बुरी परिस्थिति स्थायी नहीं होती, यकीन मानिए कि हौसला हो तो यह वक्त भी अपने वक्त के साथ गुजर जाएगा।

#आवाज़े

अम्मा शैला से झूठ बोलती रही और शैला यकीन करते रही।

कभी उन लोगों से जानने की कोशिश ही नहीं की क्योंकि शैला को अम्मा पर यकीन था।

ईश्वर की इबादत की तरह शैला हर बात मानते रही और अपनों से दूर होती गयी।
कभी दिमाग में ये तक नहीं आया कि क्यों उसका सब कुछ छूटता जा रहा है।
नाते रिश्ते दोस्त, अपने पराये।

शैला कभी अपने बाबा से भी न कभी नहीं कह पाई।
जब उनके करीब आई तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
कोई कुछ नहीं बोलता था पर दोनों समझते थे।
यही समझदारी सब कुछ खत्म कर गयी।

क्योंकि बाबा को  देखते ही शैला की आखों में बेबसी के आँसू भर जाते थे।
कभी भी उनके सामने बोलना नहीं सीखा और गले में साँस अटक कर गोला सा बन जाती थी, दम घुटने लगता था कि क्यों नहीं जान पाते हैं आप।
आपकी ही तो संतान हैं न।
या जानबूझकर इतने मजबूर हो जाते हैं कि आप भी मेरी तरह अम्मा के झूठे जाल में उलझ कर रह जाते हैं।

हाँ.... यही होता होगा।
साफ तौर पर बात करने वाले कहाँ इतनी जालसाजी आती है और यकीन भी कोई कैसे करे कि एक औरत अपने जाये बच्चों के लिए इतनी कठोर होती है।
या तो वो जरूरत से ज्यादा चालाक है या फिर अपने सिवा कुछ नहीं सोच पाती।
अव्वल दर्जे की जाहिल औरत।
जो रोना धोना, कानाफूसी और सभी तरह के त्रियाचरित्र रोम रोम में बसे हैं।

और एक बात और कि उसे लड़की जात से सख्त नफरत है।
यहाँ तक कि भगवान् के बनाए जीवों पर भी उन्हें दया नहीं आती है।

ज्यों ही घर की पाली हुई कुतिया के बच्चे हुए और घर के नौकर बहादुर ने आकर खबर की कि जूली के बच्चे हो गये हैं तो अम्मा दौड़ कर वहां पहुंचती है और पलट कर देखते हुए एक एक कर किनारे छाँट कर रखे कि कितने कुत्ते हुए हैं और कितनी कुतिया।

और अम्मा शाम हो चुकने का इंतजार करने के बाद बोरे में उन छँटनी की हुई कुतियाओं को बोरे में रखकर सड़क के दूसरी ओर बहने वाली नहर के सुपुर्द करने से कभी नहीं चूकी।

और जब से शैला को समझ में आने लगा तो देखा कि हर साल दो बार ऐसा होता है।

एक बार तो अनजाने में शैला भी इस कृत्य में शामिल हो गई क्योंकि पता नहीं था कि बोरे में क्या बंद किया है।
अम्मा ने बोरे का ऊपरी बंधा हुआ सिरा पकड़ने के लिए कहा और साथ उठाने के लिए मदद करने के लिए कहा।
ज्योंही बोरा नहर की दीवार से टकराया और उसमें से जो आवाज़ आई तो शैला खुद चकरा कर गिर गई और झपट कर बोरे की ओर कूदी लेकिन तब तक देर हो चुकी थी।
वो तो चंद सैकेंडो का काम था कि बोरा तो लहराते हुए ऊपर नीचे हिचकोले खाते हुए दूर और दूर चले गया।
शैला का हाथ अनायास ही मुँह के ऊपर से होते हुए सिर पर हाथ रखे हुए वो सन्नाटे में खड़े रह गयी।

कि तभी उसकी पीठ पर धौल जमाते हुए जोर का झटका लगा, चल मरती क्यों नहीं है अब घर को, या तुझे भी यही फेक दूँ। अम्मा के कर्कश आवाज़ ।
तब उसे और कुछ नहीं लगा उस वक्त उनका झटका महसूस हुआ।
लेकिन शब्दों का असर अब होता है।

शैला दौड़ती हुई सड़क पार करते हुए  दादी के पास भागी और जमीन पर चटाई बिछाकर मक्के के दाने सूखने के लिए निकालती हुई दादी की गोद में गिरते हुए सारी बातें उनको कही, और वो भी "शायद" कहते हुए।
क्योंकि शैला ने सिर्फ आवाज़ सुनी थी।

दादी सब जान रही थी लेकिन कह कुछ और रही थी।

न न च्येला, के और बात ह्वैली। के आई चीज ह्वैली ब्वार में।
कूड़ करकट हुनाल।
जा तू अपण किताब पढ़। उ त्यैर बाप थै क्वैली त तुकै त्यार बाप मार लगाल।
जा किताब पढ़। - (न बेटा, बोरे में कुछ और होगा, तू जा अपनी किताब पढ़। वो तेरे बाप से तेरी शिकायत करेगी तो वो तुझे मारेगा, तू जा किताब पढ़)

शैला दादी पर संदेह कर ही नहीं सकती थी क्योंकि वहीं उसकी जीवनदायिनी थी।

हाँ, शैला भी तो एक लड़की जात थी तो भला वौ कैसे अछूती रहती।
बचपन से ही दादी ने ही शैला को स्तनपान कराया था तो वही तो उसकी माँ हुई।

अच्छा, ठीक है कहते हुए शैला अपने घुटने साफ करते हुए फ्राक ठीक करते हुए उठी और कमरे में जाकर स्कूल का बैग ढूंढने लगी।

तो आवाज आई...
ए री, यहाँ आ ये ले ये सिरी (बकरे का सिर) लाए हैं।
इसको साफ कर।

शैला आवाक सी उनका मुँह देखते रह गयी।
ऐसे आखें क्या फाड़ रही है काम करना सीख।
खाने को, लदौड़ चीरने  (पेट भरने) के लिए खूब चाहिए।

मैं कैसे करूँ, मुझे नहीं आता है और मुझे स्कूल का काम करना है।
कल टैस्ट है।

हाँ, तूने ही तो मास्टरनी बनना है न , एक टैस्ट में पास नहीं होगी तो मर नहीं जाएगी और स्कूल में क्या झक मारने जाती है।
ताड़ जैसी होती जा रही है स्कूल में क्यों नहीं पढ़ती है अब बहाने बना रही है।
लगातार बोलते जा रही थी अम्मा।
तो बस चैं चैं की आवाज़ जैसे हवा में तैरती जा रही थी शैला को चींखते शब्द सुनाई दे रहे थे।

ले साफ कर इसे, तेरे बाबा कह गये हैं इससे साफ कराना।
अब बैठ यहाँ पर और स्टोव पर भूनकर चाकू से साफ कर इसको।

सुबह जल्दी उठकर पढने बैठना।

शैला कुछ भी नहीं सोचते हुए बैठ गयी और डरते डरते स्टोव पर बकरे के सिर को रख कर देखने लगी।

उसने देखा कि बकरी के सिर पर सींग फिर उसकी दयनीय नीली स्लेटी रंग की आखें।
और और किसी ने इसको मार दिया इसकी गर्दन अलग कर दी।
वहाँ पर भी माँस लटक रहा था खून के छल्ले लटके हुए थे।

वो अपने छोटे दिमाग में बस इतना ही सोच पाई और हल्के छोटे हाथों से काम करती जा रही थी, जी तोड़ मेहनत लग रही थी।

धीमी गति से चल रहा था सब धीमे धीमे बकरी के बाल जलते गये उसकी आँखें सिकुड़ गई, कान सिमट गये, सींग गिर पड़े।
चारों ओर जलने की बदबू।

जैसे शैला का पूरा बचपन जला जा रहा हो।
एक दो घंटे की मशक्कत के बाद उसने वो सब कर दिया
और जब वो खड़ी हुई तो जैसे उसके घुटने चिपक गये हो।
दो तीन बार की कोशिश के बाद दुबली पतली शैला ठीक से खड़े हो पाई।

उसने हाथ धोये, और अपनी आँखों में बहते पानी को नल के पानी से मिला दिया।
बार बार साबुन घिस रही थी कि वो बदबू जाती ही नहीं।
अंदर तक बस गयी है।

तब से लेकर हर दूसरे तीसरे दिन शैला के जिम्मे ये काम भी आ गया।
उसकी अम्मा ने उसे घर के कामकाज में अभ्यस्त बना दिया।
लेकिन..

ताजिंदगी जले हुए माँस की दुर्गंध को उसके रोम रोम में रच दिया।

शैला के अंदर - बाहर शरीर और आत्मा में आज भी कौंध जाती हैं वो कुतियाओं की आवाज़े और जले हुए माँस की दुर्गंध।

Sunday, 3 February 2019

जीवन संबंध

हम चर्चा करते हुए मासिक धर्म में होने वाले रक्तस्राव से गर्भाशयी माइक्रोबायोम तक जा पहुँचे थे।

"माहवारी का ख़ून गन्दा है या साफ़ ?"
"गन्दगी को परिभाषित करिए। स्वच्छता को भी।"
"मासिक धर्म के समय स्रावित होने वाले रक्त में कुछ तो ऐसा है , जो गन्दा है और जिससे दूर रहना चाहिए। अन्यथा संक्रमण हो सकता है।"
"मासिक धर्म के समय जो कुछ भी स्त्री-योनि से बाहर आता है ,वह क्या है ---जानते हैं ?"
"नहीं।"
"उसमें ख़ून के अलावा गर्भाशयी ऊतकों के टुकड़े होते हैं। वे ऊतक जो सम्भावित गर्भ की तैयारी के लिए उस अंग ने रचे थे। लेकिन गर्भ ठहरा नहीं। तो उन्हें त्यागा जा रहा है। इस तरह से स्त्री-गर्भाशय तीस वर्षों तक हर माह गर्भाधान की तैयारी करता है। शिशु के लिए पलना बनाता और उसे नष्ट करता है। यही कुदरत है। अब इसके बाद आप गन्दगी के विषय पर वापस आइए। ख़ून सबके भीतर है। पुरुष-स्त्री सभी के भीतर। दलित-ब्राह्मण-अँगरेज़ सभी के भीतर। ऊतक चाहे मस्तिष्क का को , हृदय का अथवा गर्भाशय का , वह शरीर के अंगों का ही हिस्सा है। उसमें गन्दा जैसा क्या हुआ ?"
"सुनते तो यही आये हैं।"
"आपको एक दिलचस्प बात बताता हूँ। लोग स्त्री-योनि , स्त्री-गर्भग्रीवा , स्त्री-गर्भाशय , स्त्री-अण्डाशय , स्त्री-अण्डवाहिनी में कोई अन्तर नहीं जानते। योनि से जो भी बाहर आता है , उसे गन्दा मान बैठते हैं।"
"पर लोगों की चली आ रही सोच में कुछ तो स्थापन रहा होगा ?"
"आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि स्त्री-योनि में बड़ी आँत के बाद सबसे अधिक जीवाणु हैं। बड़ी आँत जहाँ मल का निर्माण होता है। इस लिहाज से तो वह बड़ी आँत के बाद शरीर का सबसे गन्दा स्थान है। ध्यान रहे मैं योनि की बात कर रहा हूँ , ऊपर के हिस्सों गर्भग्रीवा-गर्भाशय-अण्डवाहिनी-अण्डाशय की नहीं।"
"वहाँ जीवाणु नहीं रहते ?"
"वहाँ जीवाणु होते हैं , यह हमने अब जान लिया है। स्वस्थ स्त्रियों में भी। गर्भाशय में मौजूद इन जीवाणुओं का एक पूरा पर्यावरण है। इसे वैज्ञानिक यूटेराइन मायक्रोबायोम का नाम देते हैं। स्वस्थ स्त्रियों की जन्मी सन्तानों की आँवों का जब हमने निरीक्षण किया , तो वहाँ जीवाणु पाये। हम सोच में पड़ गये कि ये यहाँ कैसे पहुँचे। करते क्या हैं। यक़ीनन कोई हानि तो नहीं पहुँचा रहे। लेकिन यह अवधारणा ध्वस्त हो गयी कि स्त्री-गर्भाशय में जीवाणु नहीं पाये जाते।"
"आप तो गन्दगी के विरोध में बोलते-बोलते पक्ष में बोलने लगे।"
"नहीं। आप मेरा मत समझ नहीं पा रहे। पहली बात स्त्री-योनि में जीवाणुओं की निश्चय ही बहुत बड़ी संख्या है। मल बनाने वाली बड़ी आँत के बाद। दूसरी बात यह संख्या योनि में है , गर्भाशय में नहीं। मासिक धर्म में आने वाला ख़ून गर्भाशय से आता है , योनि से नहीं।"
"अरे , पर योनि में पहुँच कर तो यह ख़ून दूषित हो गया न ?"
"पर योनि तो सदा से दूषित और जीवाणु-सम्पन्न है। चौबीस घण्टे। बारह महीने। सालों। तो फिर पुरुषों को स्त्री-संक्रमण के भय से सम्भोग ही त्याग देना चाहिए। स्त्री से संक्रमण का ख़तरा तो सम्भोग-मात्र से है !  एकदम स्वच्छ रहें। दूषण लेने से क्या लाभ ! फिर न कोई सन्तान जन्मेगी , न मानव-प्रजाति। सब-कुछ साफ़ ! इंसान की नस्ल भी साफ़ !"

वे कुछ कह नहीं पा रहे। गन्दगी की परिभाषा किसी मवादी फोड़े-सी फटकर बह चली है।

"हल्का महसूस हो रहा है ?"
"हम्म्म।"
"वैज्ञानिक कसौटियों पर अवधारणाओं को कसेंगे तो बहुत सारे दूषण अदूषण , दूष्य अदूष्य और दूषक अदूषक लगेंगे। बहुत सारी गंदगियाँ हमारे दिमाग में हैं , जिन्हें हमें साफ़ करना है। बहुत सारे अज्ञान के जीवाणु मस्तिष्क में हैं। बड़ी आँत और स्त्री-योनि के जीवाणुओं से कहीं अधिक हानिकारक।"

SShukla

Tuesday, 29 January 2019

भूत वर्तमान भविष्य

ओह, मेरे पास भूत वर्तमान भविष्य है ही नहीं।
कब के फिसल चुके।
समय धीमा धीमा,
आसपास,
बिना किसी आगा पीछा के,
छितराया भर है। तनु 29/1/2015

गूँजती आवाज़ें

सुबह सवेरे, करीब साढ़े तीन बजे नींद खुल गई, लगा कि तुमने आवाज दी मैं नींद में ही जोर से हाँ कहा तो सबसे पहले मम्मी ने पूछा क्या हुआ मैंने कहा कि बाहर कोई हैै, आवाज दे रहा है।
वो बोली नहीं कोई नहीं है बहुत कोहरा और अंधेरा है अभी, इस समय कौन आयेगा, मैं बाहर गई, कोई नहीं था।
ऐसे ही गूँजती है कानों में आवाज़।

पर आवाज़ तो तुम्हारी लगी मुझे, हजारों आवाज में मैं तुम्हें पहचान सकती हूँ।
खैर....
फिर नींद कहाँ आनी थी। मैंने गैस पर चाय का पानी चढ़ा कर माँ से पूछा,
मदर इंडिया चाय लोगे आप ?
उन्होंने कहा अभी नहीं, सो जा, रातों को चलती रहती है।
बस सारी बातें फिल्म की तरह दौड़ने लगी।
तुम कब मिले, कैसे मेरे दिल के इतने करीब आ गए, कुछ याद नहीं है।
देखा तो तुम्हें पहले भी कई बार था, पर तुम मेरे कब बने मुझे पता नहीं चला।
मेरी हर बात में तुम्हारा नाम, कई बार किसी ने कुछ बताया कि तुम मेरे जाने से खुश हो, सुनते ही दो पल अजीब सा लगता फिर मेरी आत्मा कहती कि ऐसा हो ही नहीं सकता, सामने वाले से क्रास क्वैंश्चन करने से बात में गड्डमड्ड की स्थिति।
फिर उन सबकी सोच पर तरस आता कि क्यों ये मुझे तुमसे दूर करना चाहते हैं, पागल हैं, तुम्हारी और मेरी तो आत्मा एक है।
तुम्हारा मेरा रिश्ता ऐसा बन गया था कि जब तुम मेरे घर की तरफ आते थे और मुझे आभास हो जाता था कि तुम हो, मैं जल्दी से जाकर दरवाजा और गेट खोलती तो तुम भी चौंक जाते कि कहते, अरे कैसे पता चला? 
मैं कहती, मुझे लगा कि तुमने आवाज दी।
फिर तुम मुझे देखकर कहते, नहीं तो...

और मासूम सी हँसी हँसते हुए कहते, आओ अंदर चलो।
शायद बात नहीं होती थी हमारी, मैं तुम्हें चाय को पूछती तुम कहते मैगी बनाओ, कुछ खाया नहीं है मैनें।

तुम्हारी मौजूदगी ही हौसला बढ़ाने के लिए काफी थी।
मैं अपना काम करते रहती तुम अपने फोन पर बात करते हुए काम निबटाते, मैं बीच-बीच में आकर तुमसे बातें करते रहती, हर समय अपनी शिकायतों का पुलिंदा तुम्हारे सामने रख देती, देखो ये कागज आया है, बिना देखे घर में ले लिया,
पूछते भी नहीं कि किसने दिया, अब देखो... 
लगाओ चक्कर ?

और देखो तुम कैसे जोर से मुझे देखकर फिर से हंस देते, मैं आँखे फाड़कर तुम्हें देखते रह जाती... ?
तुम कहते...
लाओ, मुझे दे दो मैं देख लूँगा,
मेरी सारी मुसीबतों को जेब में रख कर चल देते।।

वीनीत के बाद से तुमने मुझे कभी अकेले नहीं छोड़ा, डैडी की बीमारी में महीनों मेरे पास अस्पताल की सीढ़ियों पर गुजारना, क्योंकि हम वहाँ से लगातार डैडी पर नजर रख सकते थे।
और अब 21 तारिख को तुम्हारा फोन, तुम्हें वो भी आभास हो गया कि मैं शायद...
कितना निस्वार्थ प्रेम है तुम्हारा,
              पता है, मैनें ही मोतियों के दान किये होंगे कि तुम मुझे मिल गये।
तुमने अपने हजारों हजार काम छोड़कर मुझे सहारा दिया।।
कभी आज तक जतलाया नहीं, और आज भी लोगों की देख कर मेरे दिल में तुम्हारे लिए सम्मान बढ़ता जाता है।
जो जरा से में अपने को जतलाने लगते हैं।
           तुम हमेशा खुश और सफल रहो, देखो मैं भी तो स्वार्थी हूँ, क्योंकि तुम्हारी वजह से जिंदगी जी रही हूँ तो तुम्हें याद कर रही हूँ।
तुम मेरी जान में बसे हो मेरे भाई रोहित!
जीते जी ही इस बात को कह पाऊँ, यही मंशा है मेरी।
मेरे सारे आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं।
तुम सदा खुश रहो।
अगर कोई जन्म होता होगा तो मुझे तुम फिर से मेरे भाई के रूप में चाहिए।
ये साथ बना रहे!