क्षितीज का छोर
उस गरजते समुद्र पर
लौटती लहरों का ठंडापन
विहंगम सा पट जो खुला है
अंतिम क्षितिज तक
बेचैन मन का कोई कोना
स्थिर करता है
मैं आत्महत्यों तक वहाँ पहुँचती हूँ
विषाद के विचलित दिन लिए
उद्विग्नता के पल
हिलोरे सागर पर वाष्प से हो चले हैं
विलुप्त, विस्मृत यह आकर्षण है...
मौन आकर्षण
तिर जाती है आत्महत्या स्वयं ही,
मगर यह आनंद नहीं शून्य सा है
जिसमें नीरवता है, रिक्तता है।
प्रेरणा है वैराग्य सी,
जिसके विपरीत प्रभाव से पुनः पुनः
लौट पड़ता है जीवन पीछे
भर जाता है एक और आत्महत्या
तिरोहित होने की एक और
साधना उस तक
जो गरजता है दिगंत तक,