#oldies2003
साँझ-सवेरे फिरते हैं हम जाने किस वीराने में
सावन जैसी धूप लिखी है क़िस्मत के हर ख़ाने में _____________________________________
रेत की कागज पर लेटी हुई ऊँगलियाँ
सहसा उसे देख कर,
सोचती नमकीन शब्द!
निशा भी निस्तब्ध...
कुछ गुरेज कर /
करती अधेड़ सी पहल,
वह छठी इंद्रिय समझती /
मार के अदृश्य कंम्पनों को, जागृत तरंगों को
जगी ऊँगलियाँ, अब लिख रहीं कुछ यादें
मुलायम रेत की नम जमी पर...
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