Adhyayan

Saturday, 22 December 2018

धुले हुए कपड़े

नीति ने अपने बेटे के बैग में से कपड़े निकाल कर धोने के लिए वाशिंग मशीन में डाल दिए, एक बार देख लेती हूँ सोचकर वो मशीन तक पहुची तो धक से रह गयी, जल्दी से मशीन बंद की!
कुछ पैसे ऊपर से ही तैर रहे थे, उसने हाथ से कपड़े उल्ट कर देखे तो बहुत सारे, बीस, सौ, पचास के नोट, फोटो आई डी, गाड़ी का लाइसेंस सब भीगे हुए थे।

उसे समझ में नहीं आया कि ऐसा कैसे हो सकता है?

उसने सावधानी से सब सामान हटाया और बाहर आकर बेटे को आवाज़ देकर कहा, बेटा सुनो।

तुम अभी आए हो और मशीन में तुम्हारा पर्स और इतना सब सामान कहाँ से आया होगा?

और इतना कहते कहते ही उसे ध्यान आया...
अच्छा, ओह.... तुम्हारे कपड़ों में होगा पर्स।
अरे रे, ये क्या कर दिया मैंने!

तब तक बेटा भी वहां पर आकर चुपचाप मुँह को हाथ से ढककर चुपचाप मुस्कुराते हुए उसे देख रहा था....

नीति ने उसकी ओर देखा तो बोली, क्या.... ऐसे क्या मुस्कुरा रहे हो, कुछ कहते क्यूँ नहीं, डाँटो मुझे।

सौरभ, नीति का बेटा... प्यार से उसका हाथ पकड़कर कहता है आओ यहाँ बैठो आप।
बहुत डाँट खा चुकी हो।

मैं खुद धो लेता, आपने क्यों किया ?

उसकी बातों में नीति ने कहा कि सुन, सुन।
प्रेस करके सूखा देती हूँ।
वरना सब कागज और पैसे गल जायेंगे।
सौरभ बोला - कोई बात नहीं माँ, सूख जायेंगे, आप टेंशन मत लो वैसे भी आपको कौन सा पैंट की जेबें चैक करने की आदत है।
ह्म्म....
हाँ.... कहते हुए नीति को याद आया कि कई साल पहले इसी तरह से करीब करीब साल भर बाद पति के घर आ जाने पर उनको नाश्ता आदि देकर कपड़े धोने की मंशा से उनका सूटकेस खोला कि कल तो यही से ससुराल के लिए जाएंगे, वहां मशीन नहीं है यही से कपड़े वगैरह धो लेती हूँ।
वहाँ तो पहाड़ पर ठंड भी बहुत होगी।

कपड़े निकालते हुए उसमें सौंदर्य प्रसाधन का सामान और कुछ अतंवस्त्रों के डिब्बों को देखा तो उसे लगा कि अरे वाह, मेरे लिए सामान लाए हैं।
चलो, बाद में खुद ही कहेंगे कहते हुए उसने साफ करने के लिए कपडों को निकाला और अपने काम में लग गईं।

अगले दिन सुबह ही ससुराल के लिए निकलना है पैकिंग भी करनी है बाजार से घर की जरूरत और बाकी कुछ भी खरीदारी करनी है।

अगले दिन ससुराल में आकर रोजमर्रा की जिंदगी में व्यस्तता के चलते याद नहीं रहा था कि पति के सूटकेस में उसके लिए गिफ्ट और सामान था।
तीसरे दिन तब याद आया जब वहीं कपड़े "अतंवस्त्रों" को जिठानी के धुले कपड़ो की बाल्टी में देखा।

तब से आज तक जेब देखना भूल गयी नीति !
हाँ, भूल ही तो गयी थी!

Monday, 10 December 2018

प्रतिबिंब

सिर्फ एक लाईन।
चलो, चल कर देखते हैं, अब जो होगा देखा जाएगा)
हाँ यही सोचा संज्ञा ने और रात के आठ बजे किसी अनहोनी न हो इस आशंका के चलते अपनी गाड़ी निकाल दी।

और विचारों के सिलसिले बढ़े तो पुरानी बातें याद आने लगी....

हाँ, अब ये भी तो जरूरी है कि आपका परिवार का वंश चलना,
मेरे साथ तो ये नहीं हो सकता है न?
जानते हुए भी सवाल करती है संज्ञा।

मनीष - नहीं...
ऐसा भी नहीं है अब देखते हैं हम भी ये नहीं चाहते हैं अभी, जिंदगी यूँ ही अच्छे से कट जाए बस!

इसका क्या मतलब समझूं ?

कुछ नहीं, यहां बैठो चुपचाप, आपके साथ हमें भी अच्छा लगता है और इतना किसी से भी कभी कुछ शेयर नहीं कर पाए हैं, तुम क्या हो हमारे लिए, पता नहीं, क्या बात है दवाई बन गई हो हमारी!
अचानक रात के दो बजे पहुंचे मनीष ने कहा।
संज्ञा ने पकड़कर उसे संभाला।
मनीष की हालत से अच्छी तरह वाकिफ थी संज्ञा ।
मनीष बढ़बढा़ रहे थे और संज्ञा ने संभालते हुए मनीष के जूते उतारे और आराम से पैर ऊपर करते हुए मनीष को बिस्तर पर लिटा दिया।

फिर कभी।
वो बैठ तो गयी, सहारा बन गई या सहारा ले लिया उनका।
फ़िर भी सोच रही थी संज्ञा, कि क्या है ये सब, ये मोह ख़त्म क्यूँ नहीं होता, बाद में इस साथ के लेनदेन से बहुत तकलीफ होने वाली है !

तभी आवाज़ आई, सुनो...
अब ज़्यादा सोचो मत, अब इनवॉलव हो ही गए हैं तो देखेंगे....

क्या सोच रही हो तुम, हम जरा ये ऑफिस का काम ख़त्म कर ले फ़िर बात करते हैं,

ह्म्म... ठीक है, आप कीजिए काम।
मैं डिस्टर्ब कर रही हूँ आपको।

नहीं ऐसा नहीं है हमें परेशानी होती तो हम खुद कह देते या तुम्हें साफ़ मना कर देते।
हमें भी तुम्हारा साथ पसंद है।

ह्म्म.... ठीक है,

आप कीजिए काम।

यूँ ही चल रहा था ये सब।
कभी फोन पर, कभी सामने।

दोनों टूटे और एक दूसरे को सहारा देते हुए टूटते जा रहे हैं और आखिरी में और ज्यादा टूटने के लिए।

परिणति पता थी लेकिन हजारों की भीड़ खालीपन में एक जगह और घट रहे अज़ीब घटनाक्रमों में ये साथ अच्छा लग रहा था पर सहारे लेने वाले और देने की कोशिश करते हुए लोग कमजोर होते हैं।
ये जान रही थी संज्ञा, पर इन हालातों में काबू नहीं आ रहा था।

अचानक फोन आता है कि सुनो...
संज्ञा कहती है हाँ, बोलिए...
तुम कल यहाँ आ जाओ एकबार यहां आकर देख लो कैसे रहते हैं हम।
तब तुम्हें अंदाजा हो सकता है इस जगह का, घर का।

ह्म्म्म, नहीं, नहीं आ सकती हूँ।
पहले आप मना कर दिए थे और हम तब ही समझ गयीं थीं।

हमें न का मतलब समझ में आता है जैसा समझाते वैसा समझ जाती हैं।
हाँ कभी कभी लगता है कि शायद सब सही होगा तो कदम आगे बढ़ जाते हैं।

बहुत बुरा समय देखा है अब ताकत नहीं बची है अब हमारे भीतर ।

अरे, ऐसा कुछ नहीं है देखते हैं क्या पता आगे ठीक हो जाएगा मनीष कहते हैं।

अब, अंधा क्या चाहे, दो आँखें।

मन में फिर एक आस उभरी ।

बोलिए आप, कल आ रहीं हैं ?

ठीक है, अब एक दिन तो मन को समझाने दीजिए, आप कभी ना कहते हैं और आज अचानक कह रहे हैं कि आ जाएं।
मानिए बात, हमें भी वक्त लगता है और आपकी बातों से दर्द भी होता है और खुद समझ में नहीं आ रहा है कि ये हो क्या रहा है क्योंकि हम बहुत तकलीफ में हैं, सच में, संज्ञा ने कहा।

मनीष - ठीक है सोचने का समय ले लिजिएगा और देखिए अगर आ सकती हो तो।

संज्ञा - जी ठीक है ।
अच्छा, काम हो गया आपका, खाना वगैरह डिनर ?

नहीं अभी काम कर रहे हैं और फिर कुछ भूख लगेगी तो खा लेगें, शाम को आफिस में ही कुछ खा लिया था।
अभी फोन करेंगे तुम्हें, ठीक है ।

हाँ जी, ठीक है, संज्ञा कहती है और अब फोन मत कीजिएगा प्लीज।

अब आपको जब यहाँ आपके काम के लिए आना होगा तो बता दीजिएगा मै वही पहुंच जाऊँगी!
और प्लीज़ अब मैं फोन रख रही हूँ प्लीज।
और संज्ञा ने फोन काटते हुए रखती है और घुटन महसूस करती है और खुद को कोसने लगती है।
तभी दुबारा फोन की घंटी बजी तो उठा लिया और बोली।
हाँ जी....

मनीष - नहीं कुछ नहीं वो पता नहीं नेटवर्क प्राब्लम है न फोन कट गया था।

संज्ञा - नहीं मैंने काट दिया था कहा भी था फोन मत कीजिए।

क्यों ऐसा कर रही है आप, बताईये क्या करें हम?
क्या करें आपके लिए।
फोन मत काटिए।

संज्ञा - जो कहेंगे वो कर लेंगे क्या?
अच्छा, सुनिए। अभी फोन रखिएगा प्लीज।
कल बात करते हैं कुछ गलतफहमी मुझे रही।
लेकिन गलतफहमी नहीं थी पर आप अपनी बात नहीं मानेंगे और जिद करनी हमें नहीं आती।
आपने जो समझाया है हमें समझ में आता है।
और अभी गुस्से में हम अगर हमसे कुछ गलत कहा जाएगा और बाद में हमें खुद से ही घृणा हो जाएगी कि हमने गलत तरीके से बात की।
प्लीज हमें भी संभलने का समय दे दीजिए।
जो संभव नहीं है उसमें जाने से कोई फायदा नहीं।
हम भी खुद को समझाने की कोशिश कर रहे हैं आप भी काम पर ध्यान दीजिए।

मगर फिर तभी दुबारा।
फिर फोन आता है।

संज्ञा - प्लीज हमें इरिटेड मत कीजिए।
हमें भी चीजों से निकलने में वक्त लगता है।

मनीष - अच्छा, क्या चाहती हो, फोन न करें।

संज्ञा - प्लीज, अभी मत कीजिए। आपकी वो बात जानने के बाद कुछ अजीब सा हो गया है एक बार जरा समय दे दीजिए।
मैं खुद आप को फोन कर लूँगी। प्लीज़।

अच्छा, ठीक है, सिर्फ एक बात कहनी थी कि वो पुरानी बात थी, आपसे पहले भी शेयर किया था,
अभी हम आपको चीट नहीं कर रहे हैं।

संज्ञा - हाँ पर हमें अभी बुरा लग रहा है, आपकी गलती नहीं है वो सब देखकर अभी हमें बहुत बुरा लग गया।
आप जानते हैं कि हमारी फीलिंग आपके लिए जैन्युन हैं।
आप हमारे लिए राह चलते इंसान नहीं है।
सिर्फ एक दिन का समय दे दीजिए।

मनीष - ठीक है फोन रखते हैं अपना ध्यान रखना।
I did not intend to hurt you tabhi sab bata diya tha. I don't know what to say or do to make You feel better. But I am sorry...

संज्ञा - Yes, I know... I am telling you, this is not your fault, but it has affected me very much.
Please give me some time

मनीष - ठीक है, हम परसों फोन करेंगे.. Good night Okay.
संज्ञा - जी। Thanks,  मैं वहाँ बात करके आपको बता दूँगी।
अब ये काम तो पूरा करना ही है।
Good night.

Okay.. take care.

दो दिन बाद सब पता करने के बाद हालात और मनोभावों में कुछ सोचते हुए मनीष की हालत का अंदाजा होने और कुछ ज्यादा गलत न हो जाए की आशंका के चलते उसकी बताई जगह पर पहुंच कर डरे हुए मन से उसको फोन करती है और मन में सोचते हुए कि न जाने सब कैसा होगा?
बस एक दूसरे के प्रति विश्वास और कद्र पता नहीं किस रूप में सामने आ रहा था।

फोन पर घंटी जाने की आवाज़ आती हुई लगी तो लगा कि जैसे झपट कर फोन उठाया हो,

जी... हाँ कैसी हो आप?

ठीक हूँ, आप कैसे हैं?
एकदम ठीक।

कहाँ हैं आप, आज आपने फोन करना था जब नहीं आया तो लगा कि शायद...

अरे नहीं नहीं, हम फोन करते।
पर आज एक असांईनमेंट  आ गया था और बहुत जरूरी था आज ही सबमिट करना था।
साथ में सब थे तो सोचा कि रात में आराम से बात करते।
आज हम फोन जरूर करते।

अच्छा, अभी एक्जैकटली आप कहाँ पर हैं?

तुम आई हो क्या?
संज्ञा चुप सी पड़ गई।

मनीष - बताईये ?
संज्ञा - जी, आई हूँ

मनीष - कहाँ पर हो?
आपके घर के रास्ते पर, नीचे ही।

मनीष - कब आईं तुम ?

बस अभी पहुँची हूँ।

मनीष - अच्छा मुझे दो मिनट का समय दीजिए , प्लीज़।अभी काल करते हैं आपको।

तुरंत दुबारा फोन आता है हम फ्री हो गये हैं और  संज्ञा हाँ, हूँ कहते हुए घर का रास्ता समझती रहती है।
जी, ठीक है कहती हुई हल्के कोहरे में कार चढ़ाई में आगे बढ़ाती हुई  जाती है।
और आखिरकार बताए ठिकाने पर पहुंच जाती है।

कार का शीशा नीचे उतारते हुए पेड़ों के झुरमुट के बीच सर्द हवा में नमी के बीच अंधेरे में भी मनीष की उदास आँखों में आती हुई चमक देख ली थी संज्ञा ने और उसे संतुष्टि हुई कि उसने अभी तो ठीक किया।

कल जो भी हो आज तो जिया ही जा सकता है और इसी तरह से आगे देखा जाएगा।

इंसान जब सामने नहीं रह जाता है तब उसके लिए रोना और आज है तो उसका साथ बुरा क्यों लगता है अजीब सी उधेड़बुन में कमरे में कदम बढ़ाती है और खड़ी हो कर देखती है और आगे अंदर को जाते हुए एक दूसरे कमरे में जा कर कहती है, हाँ ठीक हैं, मैं इसमें रह जाऊँगी।
आप फिक्र मत करना।
ठीक है ये।

मनीष - चुप रहो, आओ अभी इधर बैठो, हीटर के पास, वहां फ्रीज़ हो जायेंगी आप।

हम जरा चेंज कर के आते हैं।

और जरा देर सी में आकर कहते हैं कि आज एक काम तो अच्छा हुआ।

क्या कुछ अच्छा हुआ क्या, बड़ा प्रोजेक्ट मिला क्या?

संज्ञा को अपना हाथ मनीष ठंडे हाथ में महसूस होता है और मनीष कहते है, नहीं तुम आ गयी ये अच्छा हुआ
Thank you...

संज्ञा आँखें उठाकर उसकी तरफ देखती है तो मनीष की आवाज सुनाई देती है ऐसे मत देखिए।
आपके लिए ये सब इमोशनल है, हमारे लिए नहीं।

और फिर से संज्ञा के दिल दिमाग में विचारों का तूफान चल पड़ता है।
आखिर क्या चाहते हैं मनीष ?

सिर भारी हो जाता है फिर भी संज्ञा यथासंभव हालात देखते हुए चुप से काम लेते हुए सुबह पूछती है कि अब कब चलेंगे?

अरे रूको अभी, कुक खाना बना रही है, खाकर फिर चलेंगे।
आज वही रहेंगे तुम्हारे पास।

अच्छा। ठीक है।

और कभी किताब कभी अखबार देखते हुए समझने की कोशिश करती रही और हल्के हल्के मनीष को असंयत होते हुए महसूस कर रही थी और पूछ ही बैठी।
क्या हुआ, are you alright?

हाँ हाँ, सब ठीक, जरा काम का टेंशन है,

तो ठीक है न, आप काम कर लिजिए, मै चलती हूँ, आपको लगेगा तो आ जाईयेगा।
कुछ असहज महसूस कर रही थी वो।
कुछ तो है जो ये कह नहीं पा रहे हैं और फिर गलत तरीके से अपनी झल्लाहट निकालेंगे।
यूँ लगता था कि जैसे वो जो तब नहीं कर पाए थे उस सबका बदला अब संज्ञा से लिया जा रहा है।

अचानक मनीष अपनी कुर्सी से उठ कर दूसरे कमरे में गये तो जरा देर में आशंकित मन से संज्ञा ने बहाने से आवाज़ देते हुए कहा कि अब तो यहां काफी सर्दी हो जाएगी न?

कोई जवाब नहीं आने पर कहती हैं कि मनीष तुम ठीक हो न?

झटके में दरवाजा खुलता है तो मनीष बदले हुए कपडों में दिखते हैं,
चलो आपको छोड़ आते हैं?

अवाक सी संज्ञा, जल्दी से बोलती है...
नहीं मुझे किसी की जरूरत नहीं, मैं जा सकती हूँ।
आई भी तो खुद हूँ न!

मैं तो आपके कहने पर रूकी हुई हूँ कि आप साथ चलने के लिए कह रहे थे और आज वही रहने के लिए कह रहे थे।

अगर सिर्फ छोड़कर आने के लिए आ रहे हैं तो वो मत कीजिए।

और मन में कहती हैं आज छोड़ ही दिया आपने।

अब मैं निश्चिंत होकर जाऊँगी कि आपको कुछ और चाहिए और ईश्वर एक बार फिर से मेरी दुआ कबूल करेंगे आपको जो चाहिए आपको वो मिल जाएगा।

पर संज्ञा नहीं।

मनीष कहते रहे कि हम आते हैं छोड़ देते हैं।

नहीं मनीष छोड़कर आने के लिए आपको नहीं आना चाहिए।

और लड़खड़ाते बैग उठाकर  थथासंभव संभलते हुए ठंड में संज्ञा ने अपने कदम बढ़ा दिए।
कदम बहुत भारी लग रहे थे।

चढाई में सांसों का उखड़ना लाजमी था।
आगे रास्ते को पार कर जैसे ही गाड़ी में सवार होती है आंसूओं के गुबार से एकाएक दिखना बंद हो जाता है। तभी जोरों से ब्रेक लगाती हुई सामने खड़ी गाड़ी में टकराते हुए बचती है और अपना हैडब्रेक लगाती हुई अपना चश्मा हटाकर आँसूओं को पोछती हुई देखती है कि आगे जबरदस्त जाम लगा हुआ है।

तभी मनीष का फोन आया तो अब यंत्रवत फोन उठा कर हैलो कहती है।
रूकिए हम आ रहे हैं आप आगे चली गई।

नहीं, अब मैं बहुत आगे निकल गई हूँ बाजार पार कर लिया है।

जबकि वहीं पर जाम में फंसी हुई संज्ञा ने, मनीष से पहली बार इतना अच्छा झूठ बोला कि उन्होंने यकीन कर लिया।

फिर आधुनिक तकनीक के युग में एक मैसेज भेज दिया

Today you did a best job from your end.
And I really deserve this.
Thanks

तुरंत जवाब आ गया
I am really sorry. I didn't intend to hurt. It's just that dealing with multiple issues gets so stressful and out of control.
I am sorry.

फ़र्क सिर्फ इतना ही कि मैसेज मे इस बार फूल नहीं थे!
खैर...

इधर, शायद कहीं कोई गाड़ी फँस गई है पहाड़ी संकरी सड़क पर एक घंटे तक मनीष के घर से मात्र 100 मीटर की दूरी पर गाड़ी रास्ते से जरा हट कर बने हुए घरों की के लिए बनी पक्की पार्किंग में गाड़ी खड़ी दी।
मन में था कि कहीं मनीष न आ जाएं?

मनीष नहीं आए और संज्ञा कार के अंदर ही कुछ समय मिल गया, उड़ते से हल्के मन और शरीर से गाड़ी चलाती रही।
जैसे सब कुछ शांत हो गया।

जो अनहोनी की आशंका चलते वक़्त थी वो इस तरह सामने आई!
क्या यही था वो....

और किसने किसको कहाँ पर छोड़ दिया?
ये दोनों जान रहे थे कि फिर भी संज्ञा सोच रही थी कि आखिरी दिन अच्छा हो सकता था, बुला कर इस तरह से....?

वो भी तो चार दिन रह कर गयी थी यहाँ से, जिसके लिए उस दिन इतनी बात को लेकर issue भी हुआ था, उससे तो मनीष का कोई रिश्ता नहीं था और आज ये सब  ?
कल तो कह रहे थे कि तुम आ गयी अच्छा हुआ।
क्या था ये सब?
आखिर क्यों ?

इस सबको आराम से भी तो कहा जा सकता था कि आज मैं नहीं आ सकता हूँ।
क्या कभी संज्ञा ने कोई जिद की थी... नही की थी, ख़ुद को जवाब दे रही थी वो!
वो सब उसके काबू से बाहर हो रहा था, उसकी साँसे थम सी रही थी, घुट गयी थी वो!

वही सब हो रहा था जो मनीष भी चाहते थे।

शायद अब ये एक सवाल बाकी के सवालों की तरह हर वक्त संज्ञा के जेहन में शोर मचाएगा।

मनीष इस सबको जानते हैं और फिर भी संज्ञाहीन हो गये, वो शायद अपने प्रतिबिंब गुजरे हुए कल से जूझ रहे हैं!
और संज्ञा... संज्ञा शून्य !!!

Unblished novel...

Sunday, 10 June 2018

लड़की जात

आशा काम से घर आती है, कार से उतर कर बरामदे में देखती है कि वहाँ माँ बैठी हुई है और साथ में पड़ोस की आँटी भी बैठी हुई है। 
आँटी कहती हैं, आशा बैठो बेटा, आपसे तो मिलना ही नहीं होता है, जब तक हम घर में काम निपटारा करते हैं आप चले जाते हो। और सुनाओ कैसा चल रहा है सब। 
सब ठीक है आँटी। कामकाज भी ठीक है जितना खोदो उतना पियो। आजकल मार्केट ठंडा पड़ गया है, नोटबन्दी ने सबको बैठा दिया है।
हाँ बिटिया तुम्हारे अंकल भी यही कहते हैं। बाजार में ग्राहकों की कमी आ रही है और दुकान पर बहुत कम लोग आते हैं। कभी कभी तो पूरा दिन यूँ ही निकल जाता है। 
आशा बैठकर सामने रखी मेज पर बोतल देखते हुए पूछती है, माँ ये पानी ठीक है। वो हाँ कहते हुए कहती है अभी लाई हूँ, साफ है। आशा पानी पीती है।
तभी माँ कहती हैं कि आज गीता का फोन आया था।
आशा पानी गटकते हुए पूछती है कौन गीता?
अपने आसपास गीता भी तो बहुत हैं।  अरे मूलचंद की बेटी जिसे तूने अपने साथ काम पर भी रखवाया था।
कह भी रही थी कि मुझे तो दीदी ने बचा लिया था आँटी , नहीं तो पता नहीं मेरा क्या हाल होता।
मेरी बहन यमुना वही फँस गई और बेचारी आज भी अपनी जिंदगी को रो रही है।

आशा को याद आ गया तो बोली,  ओह अच्छा, वो नेपाल वाले।
अब ठीक है वो ? 

हाँ, वो तो ठीक है पर उसकी बहन के साथ गलत हो गया उसके ससुराल वाले उसके दो लड़कों को ले गए और लड़की को छोड़ गये। 
आगे माँ बोली, मैंने कहा उसको, लड़की को साथ में क्यों रखा उसको भी भेज देना था, क्या चाहिए वो लड़की। 
आशा की पहले ही विचारों को लेकर अपने घर में सबसे कम ही पटती थी और अचानक इस बात ने उसे फिर से व्यथित कर दिया तो वो बोल उठी - क्यों लड़की क्यों जाती सिर्फ इसलिए कि वो लड़की है। और आपको पता है न, कि वो लोग लड़कियों के साथ क्या करते हैं। 
आँटी तुरंत बोली क्यों क्या हुआ था आप अपना दिमाग खराब मत करो बेटा, जाओ अंदर जाओ। 

आशा बोली, बात अंदर जाने की नहीं है आँटी।
मैं तो अंदर चले जाऊँगी लेकिन ये क्यों इस तरह की बातें करते हैं क्यों लड़कियों के प्रति भेदभाव रखते हैं जबकि इनको पता है कि वो वैश्यालय चलाते हैं। क्या होगा उस बच्ची का ये अच्छे  से जानती है।

गीता को कैसे मैने पुलिस की मदद से बचाया मैं आपको बता नहीं सकती हूँ। 
यू पी से दो जीप भर कर साँड जैसे मुस्टंडे आए थे उसकी ननद के साथ।

सुबह चार बजे गीता ने  गेट पर घंटी बजाई इत्तेफाक से उस दिन मैं घर में थी। मैंने ही चैनल गेट खोला। तो वो दुबली-पतली सी मेरे सामने बैठकर पैरों में लिपट गई थी कि दीदी मुझे बचा लो।
मैंने तो उसको पहचाना भी नहीं उठा कर देखा तो गीता। 
अरे क्या हो गया तुझे तेरी तो शादी हो गई थी न। तू यहाँ कैसे ?
अच्छा चल चल अंदर चल, यहां बहुत ठंड है। कितनी तेज हवा चल रही है और कहते हुए आशा ने अपना शॉल गीता के ऊपर डाल दिया। वो रेशमी पीले रंग के  मुचड़े से सूट में और भी पीलिया की मरीज लग रही थी। 
अंदर आकर उसने बताया कि शादी नहीं दीदी, भाई उसे हरिद्वार किसी की शादी में ले गया था और शराब पीने के बाद 3000 रुपये में उसको बेच आया था। अब शादी कहो या जो भी।  हमारे यहाँ लड़की के घरवालों को लड़के वाले पैसे देते हैं।  तो तूने मना क्यों नहीं किया? उसने आशा की ओर देखा, आशा की नजरों ने उसके अंदर झांका तो अपना ही सवाल बेमानी लगा।  अपनी शादी के लिए आशा भी तो मना नहीं कर पाई थी। घरवालों के आगे 18 /19 साल की उम्र की लड़की की कहाँ चलती है।  फिर आशा को याद आया, पर तेरी शादी तो तेरे पापा उस बड़े उम्र के बिहारी से कर चुके थे न।  कैसे लोग हैं ये?  हाँ दीदी, आप तो बाहर ही रहते हैं न आपको पता नही है मैं वहाँ से आ गई थी वो भी बहुत मारपीट करता था। बाहर नल से पानी लाना होता था तब भी मारता था और गलत शक करता था।  क्यों उसके घर में पानी का नल भी नहीं था तो क्या देखकर शादी की तेरी।  उसने भी पापा को तीस हजार रुपये दिये थे। वो तो किराये के मकान में रहता था वैसे बिहार का था वो, यहां रेता बजरी का काम करता था लेबरों का ठेकेदार। उम्र में बहुत बड़ा था वो। एक दिन उसने मारा, बहुत चोट लगी थी तो मैं वापस आ गयी ।  आशा की आँखें आश्चर्य से फैली रह गई, मतलब तुझे तेरे पापा ने भी..... अरे, जब घर में ही ऐसा है तो बाहर कैसे बचोगे भई।  तब आशा सुबह जल्दी नहा तैयार होकर उसे 5 बजे ही पुलिस थाने ले गई और एस ओ को सारी बातें बताई।  सारी बातें सुनकर अनुभवी एस ओ बोले अभी तो मैं आपकी मदद कर देता हूँ लेकिन ये फिर से ऐसा होगा। आप या तो इसको अपने साथ रखिये या फिर इसको अपने घर को छोड़कर जाना चाहिए। इसके बाप को मैं पहचानता हूँ। खाने की रेहड़ी लगाता है और दारुबाजी में रहता है।  आशा कुछ देर सोच में पड़ गयी और जल्द से फैसला लेते हुए बोली, ठीक है मैं इसे अपने साथ ले जाऊँगी वहीं संस्थान में कुछ काम मिल जाएगा इसे। आप फिलहाल इसकी मदद करें।  एस ओ साहब ने अपने मातहतों को आदेश दिया और जीप भेज दी। कुछ देर में उन लोगों ने आकर रिपोर्ट दी कि, सर... भगा दिया सबको। आशा, गीता के साथ चौकी पर ही बैठी थी। तब तक एस ओ साहब ने एक दो फोन भी अटैंड किए।  सिपाहियों के आ जाने के बाद एस ओ साहब बोले कि मैडम मैं आपको अच्छे से जानता हूँ इसलिए आपके एक फोन पर सोया था यूंही उठकर आ गया था। आशा ने देखा कि उनके बाल भी यूँ ही अस्तव्यस्त हैं। वास्तव में सुबह पांच बजे तो सब सोए ही होते हैं। इस बात का आभास तो था ही, और कृतज्ञता से भर उठी आशा और हाथ जोड़कर धन्यवाद कहा तो वो बोले, नहीं इस सबकी जरूरत नहीं आप अपना भी ख्याल रखियेगा। वो लोग खतरनाक है मुझे ये जो दो फोन आए थे ऊपर से थे। काफी इन्फुलेएंस लोग हैं, मजबूरी है, क्या कहें हम पुलिस की नौकरी कर रहे हैं लेकिन भ्रष्टाचार हर जगह है। इसके ससुराल वालों ने उन लोगों को अच्छी सर्विस दे रखी है। अफसरों के फोन आ रहे थे।  आशा ने गीता की ओर देखा वो बोली हाँ दी, सब लोग आते हैं वहाँ। मुझे भी वही काम करने के लिए कह रहे थे तभी मैं दो दिन से किसी तरह से भाग कर आ गयी हूँ। मेरी हालत बहुत खराब हो गई है। आशा अजीब सी स्थिति में आ गई। शर्मिदगीं देने वाली बातें सुनकर आशा, एस ओ साहब से नज़रें भी मिलाने के लिए झिझक महसूस कर रही थी। अच्छा सर, हाथ जोड़कर, थैंक्यू कहते हुए तेजी से पलटने के बाद अपनी गाड़ी की तरफ बढ़ती गई।  गीता भी लगभग दौड़ती हुई पीछे से आ कर गाड़ी में पीछे बैठ गयी।  आगे आकर बैठ, आशा ने कहा। गीता चुपचाप आगे आ गयी।  तूने बताया नहीं कि तेरे साथ क्या हुआ था? बता रही थी दी, आप बातचीत कम सुनते हैं न। आंटी जी ने सुना था।  खैर, चल अब.... क्या करना है?  गीता बोली - दीदी जी, ये लोग तो फिर आ जाएंगे। आशा गाड़ी चलाते हुए बोली, मेरे साथ चलेगी ?  कुछ कैंटीन की किचन में काम मिल जाएगा। हाँ दीदी मुझे आप ले जाओ। घर वालों में कोई भरोसा नहीं है मुझे। ये फिर से कहीं....  वो शिकारी के छूट से निकली हुई हिरनी की तरह काँप रही थी। उसे देखकर आशा का मन भर आया और उससे कहा ठीक है कुछ कपड़े हैं तो रख लेना। आठ बजे निकलना है मुझे भी। लगता है कि आज देर हो जाएगी। घर पहुंच कर जल्दी जल्दी अॉफिस के लिए निकलते हुए जा रही हूँ कहते हुए कमरे में बढ़ती रही। तभी देखा एक प्लास्टिक की थैली में कुछ कपड़े रख कर बाहर गीता खड़ी थी। और मॉ उससे कुछ पूछ रही थी। आशा के पहुंचते ही माँ ने कहा कि क्या ये भी तेरे साथ जा रही है? आशा ने कोई जवाब नहीं दिया तो वो फिर बोली, क्यों कर रही है तू ये सब। आराम से जिंदगी नही जी सकती। आशा को अंदर से हँसी आ गई,  " आराम से " बढ़ते हुए गीता से बोली, चल कार में बैठ। अब पीछे बैठना और जरा झुक कर, सिर नीचे रखना। यहाँ से किसी को अंदाज नहीं आना चाहिए कि मेरे साथ गयी है।  माँ के बढ़बढा़ने की आवाज़ आ रही थी। उसका बोलना भी उसकी जगह ठीक है।  अपने संस्थान में पहुचकर आशा ने गीता को अपने कमरे में बैठाकर पानी और कुछ बिस्कुट दिए। ये खाकर कुछ देर आराम कर एक दो घंटे बाद तुझे बुलाऊँगी। अब मैं जरा राउंड लगा लूँ। काम देख कर आती हूँ। दरवाजा यूँ ही भिड़ा हुआ रहने देना।

गीता को भी लगभग दो महीने काम करते हुए हो गये।
उसका मन लग रहा था बल्कि जितना बताओ उससे ज्यादा काम करती थी।

एक दिन दिन में वो आशा को ढूँढ़ते हुए कॉरीडोर में आई तो आशा ने कहा यहाँ क्या कर रही हो, इस वक्त तो तुम्हें डोरमैट्री में होना चाहिए।

दीदी.... वो करहाते हुए बोली।
आशा ने उसकी ओर देखा तो उसका मुँह पीला पड़ा था।
अरे क्या हो गया तुझे, आ आ यहाँ बैंच पर बैठ।

आशा ने गोविंद को जोर से आवाज दी..
गोविंद.....
जी मैडम,
पानी लेकर यहाँ आओ जल्दी।
उसने दूर से ही देखा तो भाग कर वाटर कूलर तक गया और फटाफट पानी लेकर आया।

क्या हो गया मैडम ?
ये सुबह से नीचे भी नहीं आई थी।

ओह हो, क्या पता क्या हो गया है, पता चला इस लड़की का क्या होगा ?
ये ले तो, जल्दी से पानी पी।

आशा गीता को पानी देती है।

गोविंद ड्राइवर साब कहाँ हैं ? क्या पता अस्पताल जाना पडे़।

गीता कहती है, नहीं नहीं दीदी।
बस यूँ ही जरा सा दर्द है।
अभी सही हो जाएगा।

सही कह रही है न, आशा ने पूछा ?

हाँ मैं अभी आपके पास ही आ रही थी।

अच्छा चल, अपने कमरे तक तो चल सकती है न,
गोविंद ले जा देगा।

नहीं नहीं मैं चले जाऊँगी, आप साथ आ जाओ।

हाँ, चल। मेरा हाथ पकड़।

कमरे में जाकर कुछ सुस्ता कर गीता बोली, दीदी अब ठीक है लेकिन...

लेकिन क्या, आशा ने पूछा।
दीदी... शायद।
और उसने जो कुछ बताया आशा सन्न रह गई।
हालांकि ये सब कुछ नया या अजीब बात नहीं थी।
लेकिन जिन हालतों में वो थी, वो सब अजीब बना दे रहा था।
गीता के शरीर में उसके ससुराल का अंश पल रहा था।

तो....
अब,
आशा को अब समझ में नहीं आया कि क्या होगा।
उसने कहा कि गीता तू ही बता क्या करना है ?
यहाँ मेरा गणित काम नहीं करेगा।
एक प्राण का सवाल है।

दीदी आप ही बताइए क्या करूँ?

अच्छा एक बार फिर सोच कि क्या तू उस घर में वापस जाना चाहती है?

नहीं दीदी, वो लोग गलत है, वहां कभी नहीं।

कितना समय हो गया है?

शायद दो ढाई महीने का समय हो गया होगा।

आशा ने तुरंत फैसला लिया, तो तू ऐसा कर, अब तू घर जा, मतलब मेरे घर जा।

वहां से माँ के साथ अस्पताल।
क्योंकि मुझे इस बारे में जानकारी नहीं है। मुझे छुट्टी भी नही मिलेगी दो दिन बाद आडिट है।

अब सोच समझ कर आगे की जिन्दगी के बारे में फैसला करना।

तेरे पापा एक बार तेरी जिन्दगी खराब कर चुके हैं, भाई भी तुझे उन लोगों के हाथ सौंप आया।
कुछ काम है नहीं और जिंदगी बहुत लंबी है।
अभी तू खुद को संभाल।
तू अभी खुद बच्ची है।

तो क्या दीदी मैं इसको....

हाँ बिलकुल, कोई जरूरत नहीं है कि एक जिंदगी और खराब करे। कौन करेगा उसकी देखरेख।
अभी तो खुद तू घर से बाहर है, बता इसका क्या होगा?

गीता घुटनों में ठुड्डी टिका कर बैठी रह गई।

आशा को उसकी हालत देखकर उस पर दया आ गयी और उन मर्दों पर गुस्सा आ रहा था जो कि उसका बाप और भाई था और शायद एक पति भी।

आशा अपनी जगह से उठी उसके पास आकर उसके सिर पर हाथ फेरा और बोली उठ, अब अपनी कमर पक्की कर, ऐसे नहीं बैठना है, अभी बहुत कुछ बाकी है सब ठीक हो जाएगा।
फिर अलमारी में से पर्स निकाल कर पाँच हजार रुपये एक पैकेट में डाल कर गीता के हाथ में थमाए और फिर फोन करके टैक्सी बुलाई।

घर में माँ को फोन किया और पूरी बात बताई और कहा कि अब जब ओखली में सिर डाला है न माँ...

तो संभालो सब।
किसी को कुछ मत कहना आप ही ले जाना।
डाक्टर से राय जरूर लेना कि क्या करना चाहिए।

इसके घरवालों से कह कर कोई फायदा नहीं है।

15 दिन बाद जब कुछ ठीक हो जाए तो यहीं भेज देना।