Adhyayan

Friday, 11 August 2023

कवच

क्षमा करना शत्रुओ!
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सच बतलाने में हर्ज है क्या ? 

मेरा दोष केवल इतना ही है कि ऊब जाती हूं शत्रुओं से 

क्षमा करना शत्रुओ, कि जो ये कांस्य के कवच पहनकर कुरुक्षेत्र में खड़े हो, तुम्हारी पसलियों पर कितने चुभते नहीं होंगे!
जबकि पूर्व भाद्रपद नक्षत्र के बावजूद आज इतनी उमस ! 

बहुधा ऊब जाती हूं प्रेम करते करते फिर यह तो घृणा है!
क्योंकि मैंने देखा है कि तुम तो दिखावे में जीते हो, तुम्हें किस बात की कमी है। 
तुमने मेरा ही तो हाथ थाम कर मुझे डुबोया है। 

ऊब जाती हूं लड़ते-लड़ते, जबकि मैंने ही किया हो संघर्ष का शंखनाद और रणभूमि में दोनों दिशाओं में सजी हो अठारह अक्षौहिणी सेनाएं, मेरे अगले प्रहार की विकल प्रतीक्षा में!
और ऊब जाती हूं मित्रता के प्रसार से फिर यह तो शत्रुता है!

इसमें दिशाशूल का दोष नहीं. मत कोसो कुमुदनाथ सान्याल के पंचांग को, जिसमें भ्रामक सूचनाएं ! 

दोष तो मेरा है कि ऊब जाती हूँ कि तुम्हारी कुटिल चालों से। 

याद है घर की बूढ़ी की मौत उसकी अलमारियां खगालते तुम लज्जाहीन हो जाने को आतुर। 
ब्रेड के मक्खन के लिए लपलपाती तुम्हारी जीभ। 
उन्नीस सौ निन्यानवे में अध्यापिका थी . पढ़ाती थी कई विषय, पर तुम मेरा प्रमुख विषय बन गये हैं। 
तुम्हारे लालसा, लालच की कोई सीमा नहीं। 

जब तक प्रेमी थी, लिखती थी प्रणय का आकुल अंतर ! 

दो हज़ार चार में योद्धा का रूप धरा। कोहनियां छिल गईं, दिखलाऊं क्या ? 

यह दो हज़ार सत्रह है और मुखपुस्तक पर लिख रही हूँ , जबकि प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा कर रहे हैं शत्रुगण. 

क्षमा करना शत्रुओ, कि जो ये प्रत्यंचा खींचे कुरुक्षेत्र में खड़े हो, दुखने लगे होंगे तुम्हारे कंधे! 

रविवार है, तुम धनुष रख दो! 

मायावी था "मारीच". नानाविध रूपों में आता था. 

मायावी मैं भी हूं, किंतु ऊब जाती हूँ अतिशीघ्र !

ऐन अभी मुझे "प्यासा" का गुरु दत्त याद आ रहा है, जिसने जयघोष के निनाद के बीच कह दिया था । 

"मैं वो नहीं हूं, जो आप लोगों ने मुझे समझ लिया है !"

और अगले ही क्षण हाहाकार में बदल गया था जयघोष, भर्त्सना का रूप धर चुकी थीं प्रशस्तियां ! 

भीड़ आपको जिस नाम से पुकारे, आत्मघाती होता है भरी सभा में उससे इन्कार ! 

गुरु दत्त ने नींद की गोलियां अवश्य खाई थीं, किंतु वह आत्मघाती नहीं था।
वो केवल गुरु दत्त होने से ऊब गया था ! 

जैसे औलिया होने से ऊब गया था निज़ामुद्दीन जब उसके घर के पूर्वी दरवाज़े से भीतर घुस आया था सुल्तान ! 

मैं अपने आप से ऊब जाती हूँ, क्षमा करना शत्रुओं !

और जो आरोप तुमने मुझ पर लगाए हैं, उन्हें एक जिल्द में जोड़कर छपवा लेना ऐय्यारी उपन्यास और बेच आना मंडी में । 

क्योंकि मुफ़्त नहीं मिलते हैं कांसे के कवच।
मुफ़्त नहीं मिलता है पसलियों पर घाव !
खीसे में कौड़ी होगी तो सौदों का सुहाता रहेगा !

2017  💐