Adhyayan

Thursday, 29 April 2021

इंसान/जानवर

खबर संसार

#इंसान /#जानवर
एहसास 

याद रहता है कि बचपन से ही अपने होने को लेकर मैं असहज महसूस करती थी, हर वक़्त कि, मैं क्यों हूँ और हमें क्या करना है या ऐसे ही जिंदगी चलती है क्या ?
हम सामान्य बातों के लिए तर्कसंगत तरीके से सोचते हैं और असामान्य बातों के लिए असंगत रूप से।
हमें अपने जानने की सीमा बढ़ानी चाहिए और कभी अनजाने बातों के लिए गहरे में उतरना चाहिए।
मानवता का मतलब मानवीय मूल्यों और गुणों श्रेय ईश्वर को देना होगा। 

मैं घंटों बाग में पानी देते हुए तितलियाँ ढूंढती और रंग बिरंगे फूलों के बीच ज्यादा रहती वही खाना चलता वही किताबें होती।
आमों के पेड़ के नीचे ठिकाना होता था।

ये असहज व्यवहार नहीं बल्कि अपनी पसंद में निर्भर करता है। 
मुझे साफ सुथरा प्रैजेन्टेबल रहना अच्छा लगता था लेकिन तब चूड़ी बिंदी जैसी महिला सजग अनुभूति कभी नहीं रही।
मेरी भाभियाँ किसी शादी के आने से पहले चौकस हो जाती थी ब्यूटी पार्लर जाना, मैचिंग कपड़े, सैंडल आदि आदि जो भी आवश्यक सामान होता उनकी गप्पें और खरीदारी शुरू हो जाती।
वो बाजार से सामान लाते और फिर घर में सब घेर कर देखते और अब बाकी क्या क्या है इस बात का विचार विमर्श होता।
मुझे उनको देखकर अच्छा लगता सामान में अपना इन्टट्रैस्ट दिखाती और जरूरत होती तो अपनी बात भी कहती।
भाभीजी लोग कहते कि तुम क्या पहनोगे या चलो ये लो आदि।
मैं कहती नहीं भाभी जी, इतना लकदक।
नहीं हो सकता।
अपना तो सूट या जींस ही सही है या फिर जाऊँगी नहीं।
यूँ ही अच्छा समय चलता रहता।

फिर समय पलटा और विपरीत परिस्थितियों ने कुछ कहना या न कहना बंद करा दिया।
कोई कैसे समझ सकता है जब तक उसे उसका अहसास न हो। 
हाँ, सालों साल चलते रहने वाले प्रकरण में उस वक्त की याद आती जब सब साथ में खिलखिलाकर हँसते थे, खाते थे।

कई बार देखा कि लोग मिलते लेकिन परिस्थितिवश वो सामने हँसने मुस्कुराने से कतराते कि यहाँ इन हालातों में कैसे कोई हँसे ?
धीरे धीरे ये होने लगा कि अगर हम हँसे तो लोग मन में आश्चर्य करते कि अरे...
तुम कैसे हँस सकते हो ? 
तुम्हारे तो हँसने के सारे रास्ते बंद हैं।
तुम्हारा जो कुछ भी है अब हमारा है।
अब मुझे सच में हँसी आती, मैं उन सबको देखते हुए अंदर से खूब हँसती कि क्या तुम इंसान हो ?

तब उन दिनों "जिमी" (फिमेल कुत्ता) हमारी दुनिया में आई और वो ऐसा महसूस कराती थी कि आश्चर्य होता कि ये जानवर कैसे हो सकती है ?
हर किस्म के अहसास उसके अंदर है वो देखती कि सब दुखी हैं तो खाना नहीं खाती या नहीं दे रहे तो माँगती नहीं।
वो खुशी का इजहार भी करती है। 
बात जिमी के विषय में नहीं है अहसासों की है। 
तुम लोग पहले सहानुभूति और दर्द महसूस करते थे और अब उस दर्द और सहानुभूति का अहसास करा कर अहसान जताते हो और उन दर्द से से निकलने नहीं देते हो।

"शिबो शिब "जैसे खुद ब खुद इजाद कर दिये गये शब्द...

तब घटित होती जाती घटनाओं में मैने समझा कि घटनाओं के बारे में चिंता होती है लेकिन चिंतित नहीं होना चाहिए।
और उसका मतलब समझने की कोशिश करनी चाहिए।

तुम स्वयं रास्ता निकालो क्योंकि तुम्हारी और मेरी जिंदगी अलग है नकल मत करो।
मैं उनके बारे में सोचती कि तुम्हारे सहारे हैं कोई न कोई साथ देने वाला है।
मुझसे होड़ मत करो।
और अपने से कहती सावधान।गलत को गलत कह दो। 
कोई भी वह व्यक्ति किसी और के साथ भला हो सकता है और तुम्हारे साथ नहीं।

हम इस कठोर दुनिया में बचे हुए हैं तो सिर्फ योग्यता के आधार पर नहीं बल्कि अपनी इच्छा शक्ति के बलबूते पर।
कि किसी जिम्मेदारी को आपने खुद ओढ़ लिया है और अब जरूरत है उसके बारे में सोचने की उसे पूरा करने की।
हुआ है ऐसा कि जब किसी ने कहा कि वह ऐसा कह रहा था तब अंदर से  जोर से हँसी आई कि तुम बता रहे हो या तुम्हारे अंदर का जानवर बता रहा है कि तुम पूछ रहे हो। 
कहती नहीं हूँ लेकिन कौन हो तुम ? क्या हो तुम ?
बेजुबां हो तुम तो....
तुम्हारा बातों को जानने की कोशिश का लालच दिख रहा है इतना मत गिरो कि कभी नजरों से न उठ पाओ।

अपराधी भी अपराध करने के बाद सोचता है। तुम कहाँ और कितने गिरोगे ? 
क्या मैं तुम्हारी न कह सकने वाली बात नहीं पहचान पा रही, बिल्कुल पहचान रही हूँ।
गलत विचार हैं रूक जाओ वही। 

जानवरों के पास आवाज होती तो देवदूतों की जबान में बात कर सकते थे।
मेरी दुनिया में तो फरिश्ते रहते हैं। 
जानवरों के प्रति हमारा व्यवहार किसी नैतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण नहीं होता लेकिन मानव जाति के बौद्धिक विकास के लिए महत्वपूर्ण हो जाता।

हम इस दुनिया में बचे हुए हैं इसलिए नहीं कि योग्य है बल्कि इसलिए कि हम आपको, इस प्रकृति को और पशुओं को प्यार करते हैं।

मेरे एक दोस्त ने हाल ही में कहा था कि "तनु" तुमने तब सबको जवाब देना चाहिए था और मैंने कहा कि तब मेरे पास उससे भी ज्यादा जरूरी काम था।
आज जिस विषय पर चर्चा कर रहे हैं न, ये नहीं कर पाते।

तब उनको विचारों में खो जाते हुए देखा मैंने।
उनकी आँखों की पुतलियों सिकुड़न से उन्हें सोच में पड़ते हुए देखा मैंने।
और फिर मुझे ही उन्हें वापस लाना पड़ा, अरे ज्यादा मत सोचिए, सब ठीक है अब।

हाँ, ठीक तो है पर कैसे किया होगा ? 
हम सोच नहीं पाते और... 

मैं इसलिए नहीं लिख रही कि किसी को कुछ समझाना है बल्कि इसलिए कि किसी एक को, इसको पढकर कोई एक परिस्थिति में हौसला मिल सकता है और बुरे से बुरी परिस्थिति स्थायी नहीं होती, यकीन मानिए कि हौसला हो तो यह वक्त भी अपने वक्त के साथ गुजर जाएगा। 🌇

Monday, 12 April 2021

अस्मिता

#आज_उदास_है_तनु ।।। 
#मैं_उदास_हूँ_स्त्री_अस्मिता_के_लिए 
#उसकी_शाश्वत_प्रतीक_जानकी_के_लिए।

मर चुका है रावण का शरीर 
स्तब्ध है सारी लंका
सुनसान है किले का परकोटा
कहीं कोई उत्साह नहीं
किसी घर में नहीं जल रहा है दिया
विभीषण के घर को छोड़ कर।

सागर के किनारे बैठे हैं विजयी राम
विभीषण को लंका का राज्य सौंपते हुए
ताकि सुबह हो सके उनका राज्याभिषेक
बार बार लक्ष्मण से पूछते हैं 
अपने सहयोगियों की कुशल क्षेम
चरणों के निकट बैठे हैं हनुमान!

छोटे हैं किन्तु मन में क्षुब्ध हैं लक्ष्मण 
कि राम क्यों नहीं लेने जाते हैं सीता को 
अशोक वाटिका से पर कुछ कह नहीं पाते हैं।

धीरे धीरे सिमट जाते हैं सभी काम 
विभीषण का राज्याभिषेक होकर, 
किंतु राम प्रवेश नहीं करते लंका में
बहार ही ठहरते हैं एक ऊँचे टीले पर।

भेजते हैं हनुमान को अशोक-वाटिका
यह समाचार देने के लिए कि मारा गया है रावण और अब लंकाधिपति हैं विभीषण।

सीता सुनती हैं और रहती हैं खामोश
कुछ नहीं कहती बस निहारती रास्ता
रावण का वध करते ही वनवासी राम बन गए हैं सम्राट ?

लंका पहुँच कर भी भेजते हैं अपना दूत
नहीं जानना चाहते एक वर्ष कहाँ रही सीता
कैसे रही सीता?
नयनों से बहती है अश्रुधार अपरम्पार 
जिसे समझ  पाते हनुमान, 
पर कह नहीं पाते वाल्मीकि।

सोचती सीता, राम अगर आते तो मैं उन्हें मिलवाती इन परिचारिकाओं से 
जिन्होंने मुझे भयभीत करते हुए भी 
स्त्री की पूर्ण गरिमा प्रदान की
वे रावण की अनुचरी तो थीं 
पर मेरे लिए माताओं के समान थीं।

राम अगर आते तो मैं उन्हें मिलवाती 
इन अशोक वृक्षों से इन माधवी लताओं से
जिन्होंने मेरे आँसुओं को 
ओस के कणों की तरह सहेजा अपने शरीर पर 
पर राम तो अब राजा हैं वह कैसे आते सीता को लेने ?

विभीषण करवाते हैं सीता का श्रंगार 
और पालकी में बिठा कर पहुँचाते है राम के भवन पर
पालकी में बैठे हुए सीता सोचती है
जनक ने भी तो उसे विदा किया था इसी तरह! (तो यह भी है पिता समान) 

वहीं रोक दो पालकी, गूँजता है राम का स्वर 
सीता को पैदल चल कर आने दो मेरे समीप!
ज़मीन पर चलते हुए काँपती है भूमिसुता 
क्या देखना चाहते हैं 
मर्यादा पुरुषोत्तम, कारावास में रह कर 
चलना भी भूल जाती हैं स्त्रियाँ?

अपमान और उपेक्षा के बोझ से दबी सीता
भूल जाती है पति मिलन का उत्साह
खड़ी हो जाती है किसी युद्ध-बंदिनी की तरह!

कुठाराघात करते हैं राम ---- 
सीते, कौन होगा वह पुरुष 
जो वर्ष भर पर-पुरुषके घर में रही स्त्री को 
करेगा स्वीकार ?
मैं तुम्हें मुक्त करता हूँ, तुम चाहे जहाँ जा सकती हो।
(सीता का ह्रदय फट जाता है, भंयकर पीड़ा, अपमान आर्तनांद )

राम के आते शब्दों के वार... 
उसने तुम्हें अंक में भर कर उठाया 
और मृत्यु पर्यंत तुम्हें देख कर जीता रहा
मेरा दायित्व था तुम्हें मुक्त कराना
पर अब नहीं स्वीकार कर सकता तुम्हें पत्नी की तरह!

वाल्मीकि के नायक तो राम थे, 
वे क्यों लिखते सीता का रुदन और उसकी मनोदशा ? 
उन क्षणों में क्या नहीं सोचा होगा सीता ने
कि क्या यह वही पुरुष है 
जिसका किया था मैंने स्वयंवर में वरण
क्या यह वही पुरुष है जिसके प्रेम में 
मैं छोड़ आई थी अयोध्या का महल
और भटकी थी वन, वन!

हाँ, रावण ने उठाया था मुझे गोद में
हाँ, रावण ने किया था मुझसे प्रणय निवेदन
वह राजा था चाहता तो बलात ले जाता अपने रनिवास में, पर रावण पुरुष था,
उसने मेरे स्त्रीत्व का अपमान कभी नहीं किया। 
भले ही वह मर्यादा पुरुषोत्तम न कहलाए इतिहास में!

यह सब कहला नहीं सकते थे वाल्मीकि
क्योंकि उन्हें तो रामकथा ही कहनी थी!

आगे की कथा आप जानते हैं
सीता ने अग्नि-परीक्षा दी
कवि को कथा समेटने की जल्दी थी
राम, सीता और लक्ष्मण अयोध्या लौट आए
नगर वासियों ने दीपावली मनाई 
जिसमें शहर के धोबी शामिल नहीं हुए।

आज 
मैं उदास हूँ उस रावण के लिए 
जिसकी मर्यादा किसी मर्यादा पुरुषोत्तम से कम नहीं थी।

मैं उदास हूँ बहुत, कवि वाल्मीकि के लिए 
जो राम के समक्ष सीता के भाव लिख न सके।

आज 
मैं उदास हूँ बहुत, स्त्री अस्मिता के लिए 
उसकी शाश्वत प्रतीक जानकी के लिए।