Adhyayan

Wednesday, 16 September 2020

#लम्हा

वो बस एक लम्हे का झगड़ा था
दर-ओ-दीवार पे ऐसे छनाके से गिरी आवाज़
जैसे काँच गिरता है। 
हर एक शय में गई, 
उड़ती हुई, चलती हुई, किरचें
नज़र में, बात में, लहजे में,
सोच और साँस के अन्दर
लहू होना था इक रिश्ते का
सो वो हो गया उस दिन
उसी आवाज़ के टुकड़े उठा के फर्श से उस शब
किसी ने काट ली नब्जें
न की आवाज़ तक कुछ भी
कि कोई जाग न जाए
बस एक लम्हे का झगड़ा था !

Friday, 4 September 2020

पाना /खोना

#गुमशुदा_की_तलाश

#अनकही 

बचपन में एक बार शिमला जाने का मौका मिला!
शिमला जाना था, कुछ नया कपड़ा होना चाहिए तो डैडी जी ने बुआजी को कुछ पैसे दिए और मेरे लिए कपड़े लाने के लिए कहा!
दोपहर की चाय पीने के बाद बुआजी ने बाजार जाने के लिए तैयार होने के लिए कहा।

तब सिटी बस चला करती थी।
इतना याद है कि चवन्नी अठन्नी में टिकट आ जाते थे।

रोड पार करके गौला गेट के चौराहे पर सिटी बस पकड़ने के लिए खड़े हो गए।
बस आई, आराम से बस में जगह मिल गई कोई अफरा-तफरी नहीं।

कालाढूंगी चौराहे पर बस रूका करती थी और आराम से सब सवारी उतरती और चढ़ती थी।
हम भी उतर कर कमल स्वीट हाउस वाली गली में से होते हुए कपड़े वाली गली में बढ़ने लगे।

वहां आर.के. क्लाथ हाउस से प्रसिद्ध दुकान हुआ करती है ।
उसमें जाकर दो तीन फ्रॉक और जींस टी शर्ट आदि ले लिए गए।
सारे कपड़ों में सबसे ज्यादा नेवी ब्लू कलर का सुंदर सा एक फ्राक हमें पसंद आया।

शिमला जाने का दिन भी आ गया और जब भी कहीं जाना होता था तो वही फ्राक पहना करते।
डांट भी पड़ती थी कि बाकी के कपड़े क्यों नहीं पहनती हो।

सेकेंड क्लास का रिजल्ट आ गया अच्छे नंबर से पास हो गए तो जाने के लिए कोई रोक नहीं लगी !

शिमला जाने का दिन भी आ गया, दादी (ईजा) जोर से पकड़ कर कहने लगी, मत जा, मैं अपने बाबू के बगैर कैसे रहूँगी।
मुझे बाघ उठा ले गया तो आकर किससे "ईजा " कहेगी तू।

कई तरह से दिमाग में इतना जोर पड़ गया कि आवाज ही नहीं निकलती थी।
बस अपने हाथों से उनके आंसू पोछ रही थी और मन मे होता कि मत भेजो।
पर बोलना नहीं निकलता था।

पता नहीं डर था या लगता था कि बड़े लोग सब समझ जाते हैं।
नहीं भेजेंगे।
मुझे पता नहीं था कि मैं क्यों जा रही हूँ या जाना चाहती हूं या नहीं। 

खैर कई तरह के जाने या न जाने के दवाब के बीच कब जीप में बैठी सामान रखा जाने लगा और डैडी जी ने रोडवेज स्टेशन छोड़ दिया।
बस ढ़ूढ कर सब यंत्रवत बस में बैठ गए। 
बस चलने लगी आवाज आई अभी रूदरपुर आएगा।

फिर आधी रात में पता चला कि चंडीगढ़ में हैं।
फिर भोर में शिमला।

कड़कती ठंडी में अंधेरे में ढलान पर पैदल उतरते हुए एक बरामदे में दाखिल हुए।
बहुत बड़ा दोमंजिला लम्बाई में बना हुआ लकड़ी का घर था, मैं बार बार कहीं टकरा जा रही थी, लकड़ी का घर था जोर की आवाज़ आती।
और फुफाजी ने ताला खोला, सभी एक एक कर 
अंदर दाखिल हुए। दरवाजे के पास ही स्कूटर लगा हुआ था और उसके किनारे से सामान अंदर को ढकेलते हुए जाना था।
खैर अंदर पहुंच कर दिवार पर हाथ मार कर बिजली का बटन दबाया।
और रोशनी हो गई।
अब मन में जो खाका तैयार था ये सब उससे अलग था।
होना ही था आज भी यही होता है जो डिजाइन मन में होता है उसके जैसा कहाँ कब होता है।

सुबह सबसे पहले पडोस में रहने वाली "बेबे" आई!
सफेद रूई की कोमल रस्सी जैसे बाल।
तेल लगा कर कस कर पीछे को बाँधे हुए।
चलने में कुछ लचक।
आते हुए बोली 
और विमला, कितने दिन लगा दिए मायके में।
हमारी याद नहीं न आई तैनू।

और ए कौन?
ईन्नी छोटी कुड़ी, कित्थे नु चक के लै आई तू ऐनु।

बुआजी हँसते हुए बोली।
मेरे भाई की बिटिया है।
आजकल छुट्टी थी तो साथ में ले आई।
अब इसकी माँ या बाप आयेंगे दो महीने बाद।
स्कूल खुलने पर इसे ले जाएंगे।

बाकी कुछ सुना या नहीं सिर्फ ये समझ में आया कि इसकी माँ आएगी इसे वापस ले जाने के लिए।

तब से पूरे दो महीने गुमशुदा की तलाश प्रोग्राम देख कर काटे।
डर लगता था कि कहीं बुआजी डांट लगाएंगे कि क्या देखती है, या फिर कभी टीवी ऑन न हो तो कैसे होगा, हर रोज मन में भय रहता था कि अगर आज टीवी ऑन नहीं होगा और मम्मी की फोटो आई, पता नहीं चलेगा तो क्या होगा! 
हर दिन शाम के साढ़े छह बजे का इंतजार रहता कि गुमशुदा की तलाश में मम्मी की फोटो आएगी।
क्योंकि मम्मी ने शिमला नहीं देखा था और वो कहीं खो जाएगी।
क्या बेवकूफ़ लड़की हुआ करती थी तब।

लेकिन अब कुछ तो खो ही गया है !!!