Adhyayan
Wednesday, 18 September 2019
#ToLet बीकानेर, व्यास कालोनी में घर के बाहर शर्मा सरनेम की नेम प्लेट लगी थी, मतलब किन्हीं शर्मा जी लोगों का घर था। बाहर टू-लेट का काग़ज़ चिपकाया हुआ था। पढ़कर अंदर गई तो देखा... घर में गेट के अंदर ही बोगनवेलिया की मोटी बेल थी। बरामदे में गेट के अंदर दाखिल होते हुए दाँयी ओर एक चौकोर पिलर बना हुआ था। पीलर के चारों ओर जमीन पर कुछ पाँच छ्ः इंच की जगह छोड़ी गयी थी उसी पर ये बेल लगी थी। बेल पिलर के सहारे छत पर बढ़ गयी। नीचे दायीं ओर ही कुछ जमीन छोड़ रखी थी जिसमें कुछ हल्की घास थी और कुछ गमले लगे थे। जिसमें कोई तारतम्य नहीं था, यूँ लगता था कि घर के मालिक को पौधों का शौक तो है लेकिन देखरेख करने में असमर्थ हैं। खैर अंदर आकर घंटी बजाई तो औसत कद की एक आंटी आई। उनसे नमस्ते कहते हुए पूछा - आंटी आपके घर के बाहर To-Let लिखा हुआ है, क्या आपका रूम अब भी खाली है ? हाँ हाँ, है तभी तो लिखा हुआ है ! जी, क्या आप हमें दिखाएंगे? कौन ले रहा है, तुम...? जी... हाँ, हम ही लेंगे! कितने लोग हैं ? जी, हम दो! कौन - कौन जी...वाइफ हसबैंड आँटी बाहर को देखते हुए, कौन वाइफ ? कहाँ है हसबैंड ? जी हमें ही चाहिए, अगर आप दिखा दें तो हसबैंड कल आ जाएंगे, अभी अॉन ड्यूटी हैं। ड्यूटी, कहाँ, काम करते हैं ? मन ही मन - देर हो रही है आप कमरा तो दिखाइये पहले। फिर देर शाम हो जाने पर घर जाने का रास्ता भूल जाऊँगी। जी एयरफोर्स में हैं। अच्छा...तुम लग तो नहीं रही हो ? इतनी जल्दी शादी क्यों कर ली? जी... हाँ, वो, वो हाँ शादी जरा जल्दी। हमारे यहां हो जाती है। बहुत पहले एक बार मैंने पहाड़ की अम्मा से एकबारगी उलाहने भरे शब्दों में कहा था कि आप लोगों ने जल्दी घर से निकाल दिया। तो बड़े लाड़ से अपने दही मक्खन की महक ओढ़े हुए मेरे सर पर हाथ धरे अपने अँक में भर कर बोली - बाबू.... दूध समय पर बिक जाये तो दही कौन जमाता है ? क्या कहूँ, उनकी तरफ़ देखकर सोचा, अरे ये मतलब क्या? कुछ भी। खैर आँटी जी ने घर की बाँयी ओर से साईड की गैलरी में ले जाते हुए दायीं तरफ़ का दरवाजा खोला। अंदर जाकर देखा तो बहुत ही बड़ा हवादार, हल्के पीले रंग के मार्बल का फर्श और साफ़ सुथरा कमरा था। नया ही था। आपका नया घर है आँटी? हाँ चार पांच साल पहले ही बनाया है। अब बहू बेटा यहां नहीं रहते हैं तो सोचा कि किराये पर उठा दूँ। तेरे अंकल बाहर जाते हैं तो अकेलापन महसूस होता है। मेरे अंकल, मतलब... ये कमरा हमें मिल सकता है अब कहीं और खोजने के लिए नहीं जाना पडेगा। आँटी जरा कर्री टाईप की हैं लेकिन इतना होना बनता है ये भी तो हमें नहीं जानती हैं। आगे अंदर कमरे से बाहर निकल तो एक तरफ बाथरूम और दूसरी ओर किचन है। सुन लड़की, हम लहसुन प्याज नहीं खाते हैं और तुम अंडा मीट तो नहीं खाते हो? जी, नहीं... अंडा वगैरह नहीं खाते हैं लेकिन प्याज लहसुन खाते हैं। अच्छा, ठीक है उस वक्त मेरा ये दरवाजा बंद कर दीजो। खुशबू नहीं आनी चाहिए। अच्छा... खुशबू..... ? खुशबू कैसे नहीं आएगी? उनसे नहीं कहा, लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है ? लहसुन, प्याज़ के तड़के से तो पूरा घर महक जाता है और ये आँटी का तो लगा हुआ कमरा है। ठीक है आँटी, हम बिना प्याज़ के बनाने की कोशिश करेंगे। बोली कब से आओगे तुम लोग? जी आप कल कहें तो शिफ्ट कर लेंगे। हाँ आ जाओ, तुम एक बार में प्याज नहीं डालोगी कह रही हो। आ जाओ तुम! थैंक्यू आँटी, कल दोपहर तक आ जायेंगे। अच्छा लगा, सही घर था। पानी की टंकी भी अपनी तरफ ही है तो पता रहेगा कि कितना पानी है वगैरह वगैरह। अगले दिन शिफ्ट होने के बाद किचन सैट किया। रूम में बैड, चीयर्स टेबल वगैरह सैट किया। कार्डबोर्ड की पेटीयों से सामान निकाल कर जमाया। अखबार बिछाकर किताबों को एक शेल्फ में करीने से लगा दिया। सही ऊँचाई पर है सारी किताबें दिख रही हैं। धीरे धीरे आँटी घुल मिल गयी, इतना ज्यादा कि बिना कुछ पूछे न कुछ काम करती न करने देती। ए तन्नू किधर है रे तू? देख ये चादर बेचन आया है देख जरा कैसा है? ओह हो, कह भी नहीं सकती कि साबुन के सने हाथ हैं, बाथरूम में हूँ कपड़े धो रहे हैं। फिर कहोगी कि जब नलके में पानी आता है तब कपड़े धोया कर। टंकी का पानी मत बर्बाद करे कर। बेकार में मोटर चलानी पडे़ है, बिल ज्यादा आता है। लेकिन, हाँ जी आई... कहते हुए हाथ धोए और फिसलते बचते बरामदे में पहुँची तो बोली चादर देख दे। छोटे भैया के कमरे में चाहिए। मैं उनकी ओर देखते हुए, किसके छोटे भाई, छोटे भैया भी हैं क्या घर में ? हाँ तुझे देखने की फुर्सत मिले तब देखे तू, सारा दिन किताबों में सिर खपाये रहती है। रे क्या करेगी यो इत्ता पढ़ाई करके। अब तो ब्याह भी हो गया थारा । कोई जवाब नहीं सूझता। कह देती, बस यूँ ही पढ़ती हूँ। ये... ये पर जोर देते हुए बोलती थी आँटी ये..... यूँ कौन कर पढ़े है रे इत्ता ? अब तो थारे टाबर टूबर (बच्चे) हो जाए वा पढ़ेंगे। मन में कहती... वाऊ... राईट हाँ अब यही अचीवमेंट तो तो बचा है लाईफ में । चादर देखने के बाद कहा ये चादर सही है आँटी। इसे देखिये। चादर समझ आ गयी ले ली गयी। थैंक गॉड! आँटी कपड़े धो रही हूँ अभी आती हूँ। अरे रे यो शाम के बखत क्यों धो रही है? (अपनी बात भूल जाती थी आँटी कि जब पानी आए तब कपड़े धोना।) एक दिन आवाज़ आई, रे सुन तन्नू । ओ तन्नू। जी... आई आँटी। लेकिन आँटी लगातार। तन्नू रे, अरी ओ तन्नू। अपने नाम को इतने बार सुनते सुनते मझे हो जाता कि आखिर तन्नू क्या है.? मतलब लगातार पुकारो तो एक बार को वैराग्य आ जाता है सच्ची। ओह हो अरे साँस तो ले लिजिए आँटी। पहुंचने में वक्त लगता है। खैर... देख जरा ये बेल में क्या चमक रहा है? मै यहां कुर्सी पर बैठी तो कुछ दिख रहा है मेरा हाथ नहीं पहुंचा। अच्छा देख चमक रहा है, कहीं साँप न हो। मैं हाथ बढ़ाया था कि उछल कर पीछे कूद मार दी। क्या साँप ? तो हाथ से कैसे निकालें। साँप तो काट देता है आँटी। रे छोरी तैन्नै क्या लागे कि मनै ठा को नी कै यै काट लैवे है। मैंने कहा... तो काएं कैण लाग रै हो आँटी, मै कैसे काढ़ दूँ इसनै? काट लेवैगा तो? क्या करोगे थै भी। अच्छा देख। जरूरी को न है कि साँप ही होगा। मैं तो एहतियात के तौर पै कहे हूँ तन्नै। ओ बावरी सुन, तू तो डर से घणी चोखी आपणी बोली बोलन लाग गयी रे। मैंने भी गौर किया कि हाँ, मैं तो इनके जैसे बोलने लग गयी। आँटी जोर जोर से हँसने लगी। डर तै राजस्थानी निकल गयी रै तन्नू की। मैं आवक। फिर कहा अच्छा... लाइये कुर्सी दीजिए। अच्छा अब हटो आप मैं पेड़ हिला रही हूँ वो जो होगा पता चल जाएगा। और उधर आँटी कमर पकड़ कर हंसी में ही लोटपोट। खैर... पेड़ की डाली पकड़ कर हिलाई तो छन छन करती हुई कई चम्मच और दो तीन काँटे गिरे। अरे रे, रे.... आँटी की हँसी गायब अब आश्चर्य में फिर तपाक से गुस्से में बदल गयी। और लगी घूरने। मुझे समझ नहीं आया कि अब क्या हुआ और चम्मच का पेड़। इसमें चम्मच कैसे? क्या चम्मच का पेड़ होता है? खुद से ही कहा, अरे चुप पागल... ओह ये मुझे घूर क्यों रही हैं, क्या मैंने ये यहां रखे ऐसा सोच रही हैं। लेकिन.... अचानक, वो चम्मचों की ओर लपकी, रे देख तो... तन्नू! कब से चम्मच कम होती जा रही है और मैं सोचूं कि तेरे अंकल या भैया ने अचार या घी की बरनी में गेर दी होगीं। मैंने कहा, ये आपकी हैं ? लेकिन यहाँ क्यों रखी है ? ओह थारी समझ में इत्ती सी बात को नई आती। यो कामवाली का काम है। जाते बखत ले जाती वो। वो तो आज दिन की चाय के बाद मैं वठ्ठै ही बैठी रै गयी, तो लै न स्की वो। तभ्भी सारे चमचा गायब हो गए। हे भगवान। कहाँ साँप और कहाँ चम्मच। हद है। अच्छा अब मैं जाऊँ कपड़े धोने? शाम को न धोया करे ओ छोरी। ठंड लग जाएगी तन्नै। आ हा हा.... दौड़ते हुए अपने कमरे की ओर गयी और खुद ही खुद मैं उनको जबाव दे रही थी। शाम को न धोया कर छोरी। और जो थारा बिजली का बिल आ जाएगा तब। जब देखो, दौड़ाती रहती हैं। और बाथरूम में आकर नल खोला तो पानी नहीं आ रहा था। अब कपड़े का ढेर घूरने की बारी मेरी थी। या कपड़े मुझे घूर रहे थे। क्या करना चाहिए था? कह देती कि नहीं आ रही हूँ । नहीं कह पायेगी, वो भी तो अकेली है बेचारी। अभी तो ऐसे ही चलेगा!
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