Adhyayan

Sunday, 10 June 2018

लड़की जात

आशा काम से घर आती है, कार से उतर कर बरामदे में देखती है कि वहाँ माँ बैठी हुई है और साथ में पड़ोस की आँटी भी बैठी हुई है। 
आँटी कहती हैं, आशा बैठो बेटा, आपसे तो मिलना ही नहीं होता है, जब तक हम घर में काम निपटारा करते हैं आप चले जाते हो। और सुनाओ कैसा चल रहा है सब। 
सब ठीक है आँटी। कामकाज भी ठीक है जितना खोदो उतना पियो। आजकल मार्केट ठंडा पड़ गया है, नोटबन्दी ने सबको बैठा दिया है।
हाँ बिटिया तुम्हारे अंकल भी यही कहते हैं। बाजार में ग्राहकों की कमी आ रही है और दुकान पर बहुत कम लोग आते हैं। कभी कभी तो पूरा दिन यूँ ही निकल जाता है। 
आशा बैठकर सामने रखी मेज पर बोतल देखते हुए पूछती है, माँ ये पानी ठीक है। वो हाँ कहते हुए कहती है अभी लाई हूँ, साफ है। आशा पानी पीती है।
तभी माँ कहती हैं कि आज गीता का फोन आया था।
आशा पानी गटकते हुए पूछती है कौन गीता?
अपने आसपास गीता भी तो बहुत हैं।  अरे मूलचंद की बेटी जिसे तूने अपने साथ काम पर भी रखवाया था।
कह भी रही थी कि मुझे तो दीदी ने बचा लिया था आँटी , नहीं तो पता नहीं मेरा क्या हाल होता।
मेरी बहन यमुना वही फँस गई और बेचारी आज भी अपनी जिंदगी को रो रही है।

आशा को याद आ गया तो बोली,  ओह अच्छा, वो नेपाल वाले।
अब ठीक है वो ? 

हाँ, वो तो ठीक है पर उसकी बहन के साथ गलत हो गया उसके ससुराल वाले उसके दो लड़कों को ले गए और लड़की को छोड़ गये। 
आगे माँ बोली, मैंने कहा उसको, लड़की को साथ में क्यों रखा उसको भी भेज देना था, क्या चाहिए वो लड़की। 
आशा की पहले ही विचारों को लेकर अपने घर में सबसे कम ही पटती थी और अचानक इस बात ने उसे फिर से व्यथित कर दिया तो वो बोल उठी - क्यों लड़की क्यों जाती सिर्फ इसलिए कि वो लड़की है। और आपको पता है न, कि वो लोग लड़कियों के साथ क्या करते हैं। 
आँटी तुरंत बोली क्यों क्या हुआ था आप अपना दिमाग खराब मत करो बेटा, जाओ अंदर जाओ। 

आशा बोली, बात अंदर जाने की नहीं है आँटी।
मैं तो अंदर चले जाऊँगी लेकिन ये क्यों इस तरह की बातें करते हैं क्यों लड़कियों के प्रति भेदभाव रखते हैं जबकि इनको पता है कि वो वैश्यालय चलाते हैं। क्या होगा उस बच्ची का ये अच्छे  से जानती है।

गीता को कैसे मैने पुलिस की मदद से बचाया मैं आपको बता नहीं सकती हूँ। 
यू पी से दो जीप भर कर साँड जैसे मुस्टंडे आए थे उसकी ननद के साथ।

सुबह चार बजे गीता ने  गेट पर घंटी बजाई इत्तेफाक से उस दिन मैं घर में थी। मैंने ही चैनल गेट खोला। तो वो दुबली-पतली सी मेरे सामने बैठकर पैरों में लिपट गई थी कि दीदी मुझे बचा लो।
मैंने तो उसको पहचाना भी नहीं उठा कर देखा तो गीता। 
अरे क्या हो गया तुझे तेरी तो शादी हो गई थी न। तू यहाँ कैसे ?
अच्छा चल चल अंदर चल, यहां बहुत ठंड है। कितनी तेज हवा चल रही है और कहते हुए आशा ने अपना शॉल गीता के ऊपर डाल दिया। वो रेशमी पीले रंग के  मुचड़े से सूट में और भी पीलिया की मरीज लग रही थी। 
अंदर आकर उसने बताया कि शादी नहीं दीदी, भाई उसे हरिद्वार किसी की शादी में ले गया था और शराब पीने के बाद 3000 रुपये में उसको बेच आया था। अब शादी कहो या जो भी।  हमारे यहाँ लड़की के घरवालों को लड़के वाले पैसे देते हैं।  तो तूने मना क्यों नहीं किया? उसने आशा की ओर देखा, आशा की नजरों ने उसके अंदर झांका तो अपना ही सवाल बेमानी लगा।  अपनी शादी के लिए आशा भी तो मना नहीं कर पाई थी। घरवालों के आगे 18 /19 साल की उम्र की लड़की की कहाँ चलती है।  फिर आशा को याद आया, पर तेरी शादी तो तेरे पापा उस बड़े उम्र के बिहारी से कर चुके थे न।  कैसे लोग हैं ये?  हाँ दीदी, आप तो बाहर ही रहते हैं न आपको पता नही है मैं वहाँ से आ गई थी वो भी बहुत मारपीट करता था। बाहर नल से पानी लाना होता था तब भी मारता था और गलत शक करता था।  क्यों उसके घर में पानी का नल भी नहीं था तो क्या देखकर शादी की तेरी।  उसने भी पापा को तीस हजार रुपये दिये थे। वो तो किराये के मकान में रहता था वैसे बिहार का था वो, यहां रेता बजरी का काम करता था लेबरों का ठेकेदार। उम्र में बहुत बड़ा था वो। एक दिन उसने मारा, बहुत चोट लगी थी तो मैं वापस आ गयी ।  आशा की आँखें आश्चर्य से फैली रह गई, मतलब तुझे तेरे पापा ने भी..... अरे, जब घर में ही ऐसा है तो बाहर कैसे बचोगे भई।  तब आशा सुबह जल्दी नहा तैयार होकर उसे 5 बजे ही पुलिस थाने ले गई और एस ओ को सारी बातें बताई।  सारी बातें सुनकर अनुभवी एस ओ बोले अभी तो मैं आपकी मदद कर देता हूँ लेकिन ये फिर से ऐसा होगा। आप या तो इसको अपने साथ रखिये या फिर इसको अपने घर को छोड़कर जाना चाहिए। इसके बाप को मैं पहचानता हूँ। खाने की रेहड़ी लगाता है और दारुबाजी में रहता है।  आशा कुछ देर सोच में पड़ गयी और जल्द से फैसला लेते हुए बोली, ठीक है मैं इसे अपने साथ ले जाऊँगी वहीं संस्थान में कुछ काम मिल जाएगा इसे। आप फिलहाल इसकी मदद करें।  एस ओ साहब ने अपने मातहतों को आदेश दिया और जीप भेज दी। कुछ देर में उन लोगों ने आकर रिपोर्ट दी कि, सर... भगा दिया सबको। आशा, गीता के साथ चौकी पर ही बैठी थी। तब तक एस ओ साहब ने एक दो फोन भी अटैंड किए।  सिपाहियों के आ जाने के बाद एस ओ साहब बोले कि मैडम मैं आपको अच्छे से जानता हूँ इसलिए आपके एक फोन पर सोया था यूंही उठकर आ गया था। आशा ने देखा कि उनके बाल भी यूँ ही अस्तव्यस्त हैं। वास्तव में सुबह पांच बजे तो सब सोए ही होते हैं। इस बात का आभास तो था ही, और कृतज्ञता से भर उठी आशा और हाथ जोड़कर धन्यवाद कहा तो वो बोले, नहीं इस सबकी जरूरत नहीं आप अपना भी ख्याल रखियेगा। वो लोग खतरनाक है मुझे ये जो दो फोन आए थे ऊपर से थे। काफी इन्फुलेएंस लोग हैं, मजबूरी है, क्या कहें हम पुलिस की नौकरी कर रहे हैं लेकिन भ्रष्टाचार हर जगह है। इसके ससुराल वालों ने उन लोगों को अच्छी सर्विस दे रखी है। अफसरों के फोन आ रहे थे।  आशा ने गीता की ओर देखा वो बोली हाँ दी, सब लोग आते हैं वहाँ। मुझे भी वही काम करने के लिए कह रहे थे तभी मैं दो दिन से किसी तरह से भाग कर आ गयी हूँ। मेरी हालत बहुत खराब हो गई है। आशा अजीब सी स्थिति में आ गई। शर्मिदगीं देने वाली बातें सुनकर आशा, एस ओ साहब से नज़रें भी मिलाने के लिए झिझक महसूस कर रही थी। अच्छा सर, हाथ जोड़कर, थैंक्यू कहते हुए तेजी से पलटने के बाद अपनी गाड़ी की तरफ बढ़ती गई।  गीता भी लगभग दौड़ती हुई पीछे से आ कर गाड़ी में पीछे बैठ गयी।  आगे आकर बैठ, आशा ने कहा। गीता चुपचाप आगे आ गयी।  तूने बताया नहीं कि तेरे साथ क्या हुआ था? बता रही थी दी, आप बातचीत कम सुनते हैं न। आंटी जी ने सुना था।  खैर, चल अब.... क्या करना है?  गीता बोली - दीदी जी, ये लोग तो फिर आ जाएंगे। आशा गाड़ी चलाते हुए बोली, मेरे साथ चलेगी ?  कुछ कैंटीन की किचन में काम मिल जाएगा। हाँ दीदी मुझे आप ले जाओ। घर वालों में कोई भरोसा नहीं है मुझे। ये फिर से कहीं....  वो शिकारी के छूट से निकली हुई हिरनी की तरह काँप रही थी। उसे देखकर आशा का मन भर आया और उससे कहा ठीक है कुछ कपड़े हैं तो रख लेना। आठ बजे निकलना है मुझे भी। लगता है कि आज देर हो जाएगी। घर पहुंच कर जल्दी जल्दी अॉफिस के लिए निकलते हुए जा रही हूँ कहते हुए कमरे में बढ़ती रही। तभी देखा एक प्लास्टिक की थैली में कुछ कपड़े रख कर बाहर गीता खड़ी थी। और मॉ उससे कुछ पूछ रही थी। आशा के पहुंचते ही माँ ने कहा कि क्या ये भी तेरे साथ जा रही है? आशा ने कोई जवाब नहीं दिया तो वो फिर बोली, क्यों कर रही है तू ये सब। आराम से जिंदगी नही जी सकती। आशा को अंदर से हँसी आ गई,  " आराम से " बढ़ते हुए गीता से बोली, चल कार में बैठ। अब पीछे बैठना और जरा झुक कर, सिर नीचे रखना। यहाँ से किसी को अंदाज नहीं आना चाहिए कि मेरे साथ गयी है।  माँ के बढ़बढा़ने की आवाज़ आ रही थी। उसका बोलना भी उसकी जगह ठीक है।  अपने संस्थान में पहुचकर आशा ने गीता को अपने कमरे में बैठाकर पानी और कुछ बिस्कुट दिए। ये खाकर कुछ देर आराम कर एक दो घंटे बाद तुझे बुलाऊँगी। अब मैं जरा राउंड लगा लूँ। काम देख कर आती हूँ। दरवाजा यूँ ही भिड़ा हुआ रहने देना।

गीता को भी लगभग दो महीने काम करते हुए हो गये।
उसका मन लग रहा था बल्कि जितना बताओ उससे ज्यादा काम करती थी।

एक दिन दिन में वो आशा को ढूँढ़ते हुए कॉरीडोर में आई तो आशा ने कहा यहाँ क्या कर रही हो, इस वक्त तो तुम्हें डोरमैट्री में होना चाहिए।

दीदी.... वो करहाते हुए बोली।
आशा ने उसकी ओर देखा तो उसका मुँह पीला पड़ा था।
अरे क्या हो गया तुझे, आ आ यहाँ बैंच पर बैठ।

आशा ने गोविंद को जोर से आवाज दी..
गोविंद.....
जी मैडम,
पानी लेकर यहाँ आओ जल्दी।
उसने दूर से ही देखा तो भाग कर वाटर कूलर तक गया और फटाफट पानी लेकर आया।

क्या हो गया मैडम ?
ये सुबह से नीचे भी नहीं आई थी।

ओह हो, क्या पता क्या हो गया है, पता चला इस लड़की का क्या होगा ?
ये ले तो, जल्दी से पानी पी।

आशा गीता को पानी देती है।

गोविंद ड्राइवर साब कहाँ हैं ? क्या पता अस्पताल जाना पडे़।

गीता कहती है, नहीं नहीं दीदी।
बस यूँ ही जरा सा दर्द है।
अभी सही हो जाएगा।

सही कह रही है न, आशा ने पूछा ?

हाँ मैं अभी आपके पास ही आ रही थी।

अच्छा चल, अपने कमरे तक तो चल सकती है न,
गोविंद ले जा देगा।

नहीं नहीं मैं चले जाऊँगी, आप साथ आ जाओ।

हाँ, चल। मेरा हाथ पकड़।

कमरे में जाकर कुछ सुस्ता कर गीता बोली, दीदी अब ठीक है लेकिन...

लेकिन क्या, आशा ने पूछा।
दीदी... शायद।
और उसने जो कुछ बताया आशा सन्न रह गई।
हालांकि ये सब कुछ नया या अजीब बात नहीं थी।
लेकिन जिन हालतों में वो थी, वो सब अजीब बना दे रहा था।
गीता के शरीर में उसके ससुराल का अंश पल रहा था।

तो....
अब,
आशा को अब समझ में नहीं आया कि क्या होगा।
उसने कहा कि गीता तू ही बता क्या करना है ?
यहाँ मेरा गणित काम नहीं करेगा।
एक प्राण का सवाल है।

दीदी आप ही बताइए क्या करूँ?

अच्छा एक बार फिर सोच कि क्या तू उस घर में वापस जाना चाहती है?

नहीं दीदी, वो लोग गलत है, वहां कभी नहीं।

कितना समय हो गया है?

शायद दो ढाई महीने का समय हो गया होगा।

आशा ने तुरंत फैसला लिया, तो तू ऐसा कर, अब तू घर जा, मतलब मेरे घर जा।

वहां से माँ के साथ अस्पताल।
क्योंकि मुझे इस बारे में जानकारी नहीं है। मुझे छुट्टी भी नही मिलेगी दो दिन बाद आडिट है।

अब सोच समझ कर आगे की जिन्दगी के बारे में फैसला करना।

तेरे पापा एक बार तेरी जिन्दगी खराब कर चुके हैं, भाई भी तुझे उन लोगों के हाथ सौंप आया।
कुछ काम है नहीं और जिंदगी बहुत लंबी है।
अभी तू खुद को संभाल।
तू अभी खुद बच्ची है।

तो क्या दीदी मैं इसको....

हाँ बिलकुल, कोई जरूरत नहीं है कि एक जिंदगी और खराब करे। कौन करेगा उसकी देखरेख।
अभी तो खुद तू घर से बाहर है, बता इसका क्या होगा?

गीता घुटनों में ठुड्डी टिका कर बैठी रह गई।

आशा को उसकी हालत देखकर उस पर दया आ गयी और उन मर्दों पर गुस्सा आ रहा था जो कि उसका बाप और भाई था और शायद एक पति भी।

आशा अपनी जगह से उठी उसके पास आकर उसके सिर पर हाथ फेरा और बोली उठ, अब अपनी कमर पक्की कर, ऐसे नहीं बैठना है, अभी बहुत कुछ बाकी है सब ठीक हो जाएगा।
फिर अलमारी में से पर्स निकाल कर पाँच हजार रुपये एक पैकेट में डाल कर गीता के हाथ में थमाए और फिर फोन करके टैक्सी बुलाई।

घर में माँ को फोन किया और पूरी बात बताई और कहा कि अब जब ओखली में सिर डाला है न माँ...

तो संभालो सब।
किसी को कुछ मत कहना आप ही ले जाना।
डाक्टर से राय जरूर लेना कि क्या करना चाहिए।

इसके घरवालों से कह कर कोई फायदा नहीं है।

15 दिन बाद जब कुछ ठीक हो जाए तो यहीं भेज देना।