Adhyayan

Thursday, 12 April 2018

यात्रा वृत्तांत

#SRI
#Self_Reliance_Initiative

यात्रा वृतांत भाग - 1
हल्द्वानी से देहरादून
दिनांक-8-10-2017 से 9/10 /2017
"""""""""""""""""""""""""""   
हिमालय दिग्दर्शन यात्रा
भराड्सर ताल।
देहरादून जाना था, ठीक दो दिन पहले से ही जबर्दस्त बुखार ने अपनी चपेट में ले लिया, अब या तो टिकट कैसिंल कराई जाए या एक दिन और ठीक होने का इंतजार कर लिया जाए।
घर में किसी के न होने के कारण दवाई भी पुरानी इधर-उधर पड़ी दवाई में से कुछ खोज कर इलाज किया जा सकता था।
उठने क्या, हिलने तक की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी।
किसी तरह से Whatsapp और फेसबुक पर बने रहने से और टीका टिप्पणी से हिम्मत बनाई हुई थी।
7/10/2017 को शाम को दोस्त विजयपाल जी का फोन आया कि तनु जी कैसी तैयारी है?
मैंने उन्हें जवाब दिया तो वो बोले अरे....
मैंने कहा कैसे हो पाएगा मैं तो उठ भी नहीं पा रही हूँ।
वो बोले, न न ऐसे नहीं चलेगा, आपको तो आना ही है। हर हाल में।
उठ जाओ, सब ठीक हो जाएगा।
बोलने की ताकत नहीं थी तो जल्द ही हाँ, ठीक है कह कर बात खत्म कर दी।
8/10 /2017 की सुबह ठंडे पानी से नहाया ताकि बुखार दब जाए और तैयार हो कर किसी तरह कार तक पहुंच कर गाड़ी स्टार्ट की।
उतनी देर में सांस चढ़ सी गयी।
पांच मिनट तक सीट पर सिर टिकाए बैठी रही, मन में मीमांशा के लिए फिक्र थी।
उस तक पहुंचना था।
घर से निकल कर गाड़ी मुख्य मार्ग पर डाल दी 1 किमी चलने के बाद चक्कर से आने लगे तो महसूस हुआ कि नहीं हो सकता है।
गाड़ी लामाचौड़ कलाढूँगी रोड पर मोड़ कर बगीचा रेस्टोरेंट में ले गयी...
वहाँ पहुच कर एक चाय मंगाई, उनसे कहा कि मै अभी कुछ देर बैठूँगी कोई दिक्कत तो नहीं।
तभी एक व्यक्ति आया और बोला कि मैडम आपकी तबियत सही नहीं है क्या आपको कहीं पहुंचाना है।
मैंने कहा अब ठीक है, मुझे दवाई खानी है,, आप कुछ खाने के लिए ले आइये।
फिर जरा देर के बाद वो मेरे लिए स्टफ्ड पंराठा, रोटी और एक चाय और बना लाए।
बोले, मैम इसमें घी या मक्खन नही लगाया है आप चाहें तो लगा सकते हैं।
मैंने कहा, थैंक्स। ये ऐसे ही सही है।
मै एक ले पाऊँगी।
फिर धीरे धीरे नाश्ता करने के बाद दवाई खाई, तभी मीमांशा का फोन आ गया,,, दी, कहाँ हो ?
मैंने प्रति उत्तर में कहा कि तुम कहाँ हो, कुसुमखेड़ा तक आ जाओ।
फिर बिल आदि चुकाने के बाद गाड़ी की तरफ बढी तो एक लड़का दौड़ कर आया। मैम आप ये भी ले जाईये, इसमें एक बगैर घी लगा पराठा है, आप दिन में खाईयेगा। दवाई लेंगे न आप ?
मैं पैसे देने के लिए पर्स खोला तो वो बोला कि नहीं वो सब हो गया है।
सर आपको जानते हैं उन्होंने भेजा है।
मैंने कहा कि कौन सर ?
जी वो तो मुझे भी नहीं पता मैं कल ही आया हूँ।
असमंजस के भाव से मैं गाड़ी में सवार हो गयी, ज्यादा हिम्मत भी नहीं थी कि कुछ पूछ सकूँ।
खैर....
कुसुमखेड़ा पहुंच कर मीमांशा से बात की और बेस्ट विशेज देकर वापस घर आई।
अब तक इतना चलने और दवाई का असर हो चुका था, बुखार उतरता सा लगा।
धीरे धीरे सामान पैक किया।
फिर यूँ ही बैठ कर जाऊँ या न जाऊँ के चक्कर में रही कि कहीं ज्यादा तबियत खराब हो गई तो सबको परेशानी हो सकती है।

शाम को विजय का फोन आ गया तैयार हो न। यहाँ ज्यादा सामान मत लाना हम देख लेंगे बस अपने गर्म कपड़े और दवाई वगैरह।
पर वो सब भी तो कितना हो जाता है।
स्लीपिंग बैग, गर्म कपड़े, मैट, जैकेट, हल्का कुछ ओढ़ने के लिए, वाटर वाॅटल, कुछ ड्राई फ्रूट्स, और रोजमर्रा की वस्तुएं।
होते होते सामान के तीन बड़े नग तैयार हो गए।
8/10/2017 की शाम को एक मित्र ने रेलवे स्टेशन पर ड्राप किया और सामान को वेटिंग रूम में ही व्यवस्थित करके दिया और ताकिद की कि अभी भी समय है, देख लो। मत जाओ....
उनकी बात सही थी पर आगे किया हुआ प्रामिस...
नहीं, मैं जाऊँगी। वर्ना बात खराब हो जाएगी।
वहाँ 11 लोगों की टीम का चयन किया गया है, और मुझे जाना जरूरी है ।
आप फिक्र न करें, ज्यादा होगा तो देहरादून में विजय जी के घर रूक जाऊँगी।
ट्रेन का समय हो गया और किसी तरह सामान जल्द से चढ़ाया। हल्द्वानी स्टेशन पर गाड़ी बहुत कम रूकती है।
और मेरा ट्रेन का टिकट दोस्त के हाथ में रह गया।
अब....
ओहफ्फो...
तभी दरवाजे की तरफ  से आवाज आई कि तनुजा जोशी कौन है, उनका टिकट है।
मैं चौक कर बोली... जी हाँ, इस तरफ दे दीजिए।
वो बोले आपके साथ वाले पकड़ा गये।
मैंने उन सज्जन को धन्यवाद दिया।
वो बोले इतना सामान आप अकेले कैसे ले जाओगे।
फिर मैंने कोई जवाब नहीं दिया और सामान के साथ आगे को सीट ढूंढ़ते हुए आगे की ओर बढ गयी।
नहीं हो पाया तो एक सीट पर बैठ कर टी टी का इंतजार किया, टी टी ने आकर टिकट चैक किया और ऊपर की सीट पर मेरा सामान चढ़ाने के लिए मदद कर मुझे मेरी सीट मुहैया करा दी।
जैसे ही सामान सैट किया फोन की घंटी बजी तो विजय बोले, आप आ रही हो न।
मैंने हां कहा बताया कि ट्रेन में बैठ चुकी हूँ, वो चहक कर बोले, ये बात।
मुझे मालूम था कि आप कर सकते हो।
सुबह पहुंच कर फोन कर देना मैं पहुंच जाऊँगा। मेरा फोन आॅन रहेगा।
खाना - दवाई पूछ कर औपचारिकता के बाद फोन रखा।
फिर चैट पर अमन बिंद्रा जी से बात की, वो मुझे गुलमोहर ड्राईव के लिए अपना योगदान देना चाहते थे।
तब किसी कारणवश मदद नहीं कर पाए।
कह रहे थे कि नर्सरी वाला पेड़ नहीं देता है आपको ही देगा।
खैर....
ज्यादा लिखने की ताकत नहीं थी।
हल्की चैट के बाद दवाई खाने के बाद सोने का प्रयास किया।
रात को फिर से बुखार आ गया और बहुत ठंड लगने लगी।
सुबह जल्द चार बजे ट्रेन स्टेशन पर पहुंच गई।
सामान उतारना और बाहर जाना भी घमासान लग रहा था।
बाहर आकर विजय जी को फोन किया। कुछ ही देर में विजय जी अपने स्कूटर में मुझे लेने आ गये।
उन्होंने खुद स्कूटर पर समान जमाया और ऐसे बैठिए कहा।
दस मिनट बाद हम उनके घर में थे।
मुझे बड़ा अटपटा लग रहा था उन सबको इतनी सुबह डिस्टर्ब करके।
विजय बहुत संवेदनशील इंसान हैं, वो भाँप गये और बोले आप बिलकुल निश्चिंत रहें हमें तो बच्चों की वजह से जगना ही पड़ता है।
विजय की पत्नी "किरन" बहुत ही अच्छी लेडी हैं, कहने लगी...
दीदी आप आराम करो मैं तो आपकी डाई हार्ट फैन हूँ, आपसे बहुत इंस्पायर्ड हूँ।
विजय बोले, देखा तनु। चिंता की कोई बात नहीं है, अब आप एक घंटा आराम कीजिए।
तभी अचानक से उनका छोटा बेटा, जग गया और सीधे मेरी गोद में आकर दोनों हाथ गले में डाल कर चिपट गया और चुपचाप कंधे पर सिर रख दिया
मुझे कफ और कोल्ड की वजह से थामने में हिचक हो रही थी पर वो जोर से चिपट गया तो मैंने भी दोनों हाथों से अपने आगोश में ले लिया।
पहले भी मिला था पर तब तो नन्हा सा था।
फिर सात आठ मिनट तक उसी तरह से रहकर सिर उठाकर मेरी ओर मुस्कुराते हुए देखा। जैसे न जाने कितने दिनों का इंतजार खत्म करना था।
मैंने भी पूछा का? का हुआ सोना?
वो मेरे मुँह में अपना हाथ फिराता रहा फिर नीचे उतरकर कमरे से बाहर चला गया।
मैं देखती रही और फिर कुछ देर बाद हम लोग नहा कर तैयार हो गए।
किरन ने चाय मीठी सिवैंये खिलाई और फिर दवाई खाने के बाद हम लोग सीढ़ियों से उतरते हुए सड़क मार्ग पर आ गए।
जाते हुए किरन ने टिप्स दी, दीदी टाफी रख लेना। चढ़ाई में जाते हुए टाफी मुँह में होने से आराम मिलता है।
गला नहीं सूखता है।
मैंने उनकी बात को ध्यान में रखते रखा और रोड पर आते ही इनोवा कैब में बैठकर द्रोण होटल में पहुंच गए।
समय के पाबंद रतन सर भी पहुँच गए और हमें हिमालय दिग्दर्शन के ड्रेस कोड के अन्तर्गत टी शर्ट दी।
थोड़ी देर बाद ओमान में कार्यरत कोटद्वार के बड़े भाई अजय कुकरेती पंहुचे उनके और अपने साजो-सामान को देखकर एक दूसरे को ट्रेकिंग किट के साथ देखकर पहचान लिया और सेल्फ इंट्रोडक्शन किया।

फिर दिल्ली से बड़े भाई दलबीर रावत, पौड़ी से अरविंद धस्माना, पूर्व सैनिक एवं कर्मठ अध्यापक मुकेश बहुगुणा उर्फ मिर्ची बाबा जी" , पलायन एक चिंतन के संयोजक ठाकुर रतन असवाल, वरिष्ठ पत्रकार गणेश काला , सबसे कम उम्र के साथी इंजीनियर सौरभ असवाल, असिस्टेंट कमिश्नर जीएसटी मनमोहन असवाल, मानव शास्त्री नेत्रपाल यादव, सभी सहयात्री इस यादगार ट्रैकिंग के लिये पंहुच चुके थे। हमारी हौसलाफजाई हेतु दून डिस्कवर मासिक पत्रिका के संपादक दिनेश कंडवाल जी, समय साक्ष्य प्रकाशन के प्रवीण भट्ट,रविकांत उनियाल जी भी द्रोण होटल पंहुच कर ठीक 8 बजे प्रातः हमारी इस यात्रा को हरी झंडी दिखाते हुऐ इस पहाड़ की यात्रा का शुभारम्भ कर हमें भराड़सर के लिये रवाना किया।

हंसी-मजाक और राजनीतिक चर्चा में कांग्रेस की तिमले की चटनी से लेकर भाजपा के ठप पड़े डबल इंजन की रफ्तार पर तथा पहाड़ और उसके गंभीर विषयों पर खट्टी-मीठी गपशप के साथ हम देहरादून से मंसूरी वहां से जमुना पुल होते हुऐ नैनबाग से पहले सुमन क्यारी पंहुचे।
जहाँ पुरोला के एसडीएम शैलेन्द्र नेगी जी के आग्रह पर एक-एक मीठी चाय की प्याली के साथ पहाड़ के ऊंचे नीचे डांडों के सफर की थकान को दुरूस्त किया।

एसडीएम नेगी हमारे इस दल की यात्रा को लेकर काफी उत्साहित थे वे इसे इस क्षेत्र के पर्यटन के विकास के लिये मील का पत्थर साबित होने की शुभकामनाओं से हमें प्रोत्साहन देने के लिये सुबह ही देहरादून से पुरोला के लिये चले थे। बातचीत की इस छोटी से मुलाकात के बाद एसडीएम नेगी साहब की गाड़ी के पीछे हम नैनबाग से डामटा तथा नौगांव होते हुऐ लगभग 2 बजे पुरोला पंहुचे।

कुमोला रोड़ पर स्थित सहयात्री मनमोहन असवाल जी के घर पर उनके आग्रह पर रामा-सिरांई का लाल भात और स्थानीय  राजमा के स्वादिष्ट लंच से सभी सहयात्रीयों का तन-मन तृप्त हो गया।
मनमोहन जी के स्नेहशील माता-पिता से विदा लेकर हम मोरी की तरफ बढ़े रास्ते से हमारी इस यात्रा का एक सहयोगी स्थानीय नौजवान कृष्णा हमारे साथ हो लिया।
जो आज के गंतव्य फिताडी गाँव का रहने वाला था। उसके हंसमुख स्वभाव और वाकपटुता के राजनीतिक व्यंग्यों ने पूरी गाड़ी का वातावरण हंसी के ठहाकों में परिवर्तित कर दिया।

4 बजे मोरी पंहुच कर हमने आगे के सफर के लिये जरूरी रसद सामाग्री को गाड़ी में रख कर जल्दी आगे के सफर का रूख किया। इस सफर के अन्य युवा साथी कांग्रेस के स्थानीय ब्लाक अध्यक्ष राजपाल रावत, प्रहलाद रावत और उनके साथी अपने नीजी वाहन से हमारे सफर में साथ हो लिये। मोरी से नैटवाड़ होते हुऐ टोंस और पक्की सड़क को छोड़ हम उसकी साहयक सुपीन नदी के तीर सदियों से बदहाल सड़क के उबड़-खाबड़ सफर से होते हुऐ सांकरी पंहुचे।

सांकरी आजकल हरकीदून,केदारकांठा आदि ट्रैकिंग वाले पर्यटकों के चलते गुलजार था। हम पहाड़ के चिंतकों के लिये इस दूरस्थ क्षेत्र की यह तरक्की एक सुखद एहसास था। जो यहाँ के स्थानीय लोगों ने कड़ी मेहनत से पिछले पांच-दस सालों में हासिल किया था। खैर यहाँ से रतन भाई के द्वारा जरूरत के टैंट, अतिरिक्त स्लीपिंग बैग,छाता-रैनकोट, पोंचू छोटी बहन किरन की बात रखते हुए मीठी-चटपटी टाफी, ट्रैकिंग स्टीक, तंबाकू-पानी आदि सामान फटाफट पैक कर गाइड को साथ लेकर जखोल पंहुचे।

जखोल पंहुचते-पंहुचते रात हो चुकी थी। जखोल से आगे सड़क के हाल देख कर डर लग रहा था।
मैंने अपना मोबाइल खिड़की से बाहर निकाल कर सड़क का चलती गाड़ी से विडियो बनाया क्यों कि मैं अपनी उत्सुकता रोक नहीं पा रही थी और हम इस अंजान सफर के खतरनाक पहलू से रूबरू होने लगे। यह साफ-साफ समझ आ रहा था की एक और राज्य की तरक्की की प्रतीक देहरादून की चमचमाती सड़कें है तो इस राज्य के इस पर्वतीय समाज की तकदीर में ये टूटी सड़कें थी।

थोड़ी देर बाद अचानक सुपीन नदी के तट पर गाड़ी रूक गयी।
सामान उतारा गया पहले से मौजूद खच्चरों पर सामान लादा गया और टार्च के सहारे नदी के किनारे किनारे पहाड़ की ऊंची पगडंडियों का दामन थाम कर हम सब स्थानीय गाँव वासियों के दिशा निर्देश पर चलने लगे। बेहद घुप्प अंधेरे में चलना फिर फिसलना फिर खड़े होकर चलने का सिलसिला जारी रहा।
एक बार तो मैं चल ही नहीं पाई तो विजय जी ने मुझे कहा कि आप अपनी क्षमताओं का आंकलन कीजिये और तब आगे बढ़ियेगा।
मेरी तो वही हालत खराब हो गई, मतलब ये सब मुझे छोड़कर चले जाएंगे।
इसका मतलब यह था कि मैं फंसे रहूंगी क्योंकि ये सब तो फिर हिमाचल प्रदेश के तरफ त्यूनी गांव में निकलेंगे और जानिए कोई ऐसी जगह जहाँ दूर दूर तक आबादी नहीं 🙄
मैंने तुरंत चलने में ही भलाई समझी।
नेत्र पाल जी ने कहा आपने आना नहीं था, आपको बुखार है।
सौरभ को भी कोल्ड हुआ था।
और मेरे साथ सफर का असली साथी वही रहा।
रतन सर ने कुछ ना कहते हुए भी भरपूर ध्यान रखा हुआ था!
पहाड़ में चलने के इस पहले कठिन अनुभव के बावजूद हिम्मत और हौसले से चलते रहे।
रात को नदी के किनारे चलते हुए डर था कि कब पैर फिसले और हजारों फुट नीचे नदी में गिरने का खतरा था।
    अंधेरे में लगभग दो-ढाई घंटे की चढ़ाई चढ़ने के बाद हम काफी थका देने वाली यात्रा के बावजूद सुरक्षित फिताडी गाँव से सटे रैक्चा गाँव के प्रधान और हमारी इस यात्रा के आज के मेजबान के घर पंहुचे।
जहां विजय जी  के कालेज की छात्र और उनके राजनीति का सहयोगी साथी अनुज जयमोहन राणा ने गांववासीयों सहित हमारा गर्म-जोशी से स्वागत किया।
बेहद कड़कड़ाती ठंड में चाय की चुस्की, बल्कि मैंने तो लगातार दो चाय पी और ड्राईफूड के बाद शानदार कांसे की पारंपरिक थालियों में शाकाहारी और जो मांसाहारी थे उनके लिए मांसाहारी भोजन के बाद हमारी सारी थकान मिटा दी।

रात को थकान और अंधेरे के चलते गाँव की खूबसूरती को निहार ना सकने के कारण हम जल्दी ही बेहद नर्म और गर्म बिस्तर की इस आखिरी रात में जल्दी सो गये।

क्रमशः जारी.....

तनुजा जोशी

Sunday, 1 April 2018

एहसास

याद रहता है कि बचपन से ही अपने होने को लेकर मैं असहज महसूस करती थी, हर वक़्त कि, मैं क्यों हूँ और हमें क्या करना है या ऐसे ही जिंदगी चलती है क्या ?
हम सामान्य बातों के लिए तर्कसंगत तरीके से सोचते हैं और असामान्य बातों के लिए असंगत रूप से।
हमें अपने जानने की सीमा बढ़ानी चाहिए और कभी अनजाने बातों के लिए गहरे में उतरना चाहिए।
मानवता का मतलब मानवीय मूल्यों और गुणों श्रेय ईश्वर को देना होगा।

मैं घंटों बाग में पानी देते हुए तितलियाँ ढूंढती और रंग बिरंगे फूलों के बीच ज्यादा रहती वही खाना चलता वही किताबें होती।
आमों के पेड़ के नीचे ठिकाना होता था।

ये असहज व्यवहार नहीं बल्कि अपनी पसंद में निर्भर करता है।
मुझे साफ सुथरा प्रैजेन्टेबल रहना अच्छा लगता था लेकिन तब चूड़ी बिंदी जैसी महिला सजग अनुभूति कभी नहीं रही।
मेरी भाभियाँ किसी शादी के आने से पहले चौकस हो जाती थी ब्यूटी पार्लर जाना, मैचिंग कपड़े, सैंडल आदि आदि जो भी आवश्यक सामान होता उनकी गप्पें और खरीदारी शुरू हो जाती।
वो बाजार से सामान लाते और फिर घर में सब घेर कर देखते और अब बाकी क्या क्या है इस बात का विचार विमर्श होता।
मुझे उनको देखकर अच्छा लगता सामान में अपना इन्टट्रैस्ट दिखाती और जरूरत होती तो अपनी बात भी कहती।
भाभीजी लोग कहते कि तुम क्या पहनोगे या चलो ये लो आदि।
मैं कहती नहीं भाभी जी, इतना लकदक।
नहीं हो सकता।
अपना तो सूट या जींस ही सही है या फिर जाऊँगी नहीं।
यूँ ही अच्छा समय चलता रहता।

फिर समय पलटा और विपरीत परिस्थितियों ने कुछ कहना या न कहना बंद करा दिया।
कोई कैसे समझ सकता है जब तक उसे उसका अहसास न हो।
हाँ, सालों साल चलते रहने वाले प्रकरण में उस वक्त की याद आती जब सब साथ में खिलखिलाकर हँसते थे, खाते थे।

कई बार देखा कि लोग मिलते लेकिन परिस्थितिवश वो सामने हँसने मुस्कुराने से कतराते कि यहाँ इन हालातों में कैसे कोई हँसे ?
धीरे धीरे ये होने लगा कि अगर हम हँसे तो लोग मन में आश्चर्य करते कि अरे...
तुम कैसे हँस सकते हो ?
तुम्हारे तो हँसने के सारे रास्ते बंद हैं।
तुम्हारा जो कुछ भी है अब हमारा है।
अब मुझे सच में हँसी आती, मैं उन सबको देखते हुए अंदर से खूब हँसती कि क्या तुम इंसान हो ?

तब उन दिनों "जिमी" (फिमेल कुत्ता) हमारी दुनिया में आई और वो ऐसा महसूस कराती थी कि आश्चर्य होता कि ये जानवर कैसे हो सकती है ?
हर किस्म के अहसास उसके अंदर है वो देखती कि सब दुखी हैं तो खाना नहीं खाती या नहीं दे रहे तो माँगती नहीं।
वो खुशी का इजहार भी करती है।
बात जिमी के विषय में नहीं है अहसासों की है।
तुम लोग पहले सहानुभूति और दर्द महसूस करते थे और अब उस दर्द और सहानुभूति का अहसास करा कर अहसान जताते हो और उन दर्द से से निकलने नहीं देते हो।

"शिबो शिब "जैसे खुद ब खुद इजाद कर दिये गये शब्द...

तब घटित होती जाती घटनाओं में मैने समझा कि घटनाओं के बारे में चिंता होती है लेकिन चिंतित नहीं होना चाहिए।
और उसका मतलब समझने की कोशिश करनी चाहिए।

तुम स्वयं रास्ता निकालो क्योंकि तुम्हारी और मेरी जिंदगी अलग है नकल मत करो।
मैं उनके बारे में सोचती कि तुम्हारे सहारे हैं कोई न कोई साथ देने वाला है।
मुझसे होड़ मत करो।
और अपने से कहती सावधान।गलत को गलत कह दो।
कोई भी वह व्यक्ति किसी और के साथ भला हो सकता है और तुम्हारे साथ नहीं।

हम इस कठोर दुनिया में बचे हुए हैं तो सिर्फ योग्यता के आधार पर नहीं बल्कि अपनी इच्छा शक्ति के बलबूते पर।
कि किसी जिम्मेदारी को आपने खुद ओढ़ लिया है और अब जरूरत है उसके बारे में सोचने की उसे पूरा करने की।
हुआ है ऐसा कि जब किसी ने कहा कि वह ऐसा कह रहा था तब अंदर से  जोर से हँसी आई कि तुम बता रहे हो या तुम्हारे अंदर का जानवर बता रहा है कि तुम पूछ रहे हो।
कहती नहीं हूँ लेकिन कौन हो तुम ? क्या हो तुम ?
बेजुबां हो तुम तो....
तुम्हारा बातों को जानने की कोशिश का लालच दिख रहा है इतना मत गिरो कि कभी नजरों से न उठ पाओ।

अपराधी भी अपराध करने के बाद सोचता है। तुम कहाँ और कितने गिरोगे ?
क्या मैं तुम्हारी न कह सकने वाली बात नहीं पहचान पा रही, बिल्कुल पहचान रही हूँ।
गलत विचार हैं रूक जाओ वही।

जानवरों के पास आवाज होती तो देवदूतों की जबान में बात कर सकते थे।
मेरी दुनिया में तो फरिश्ते रहते हैं।
जानवरों के प्रति हमारा व्यवहार किसी नैतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण नहीं होता लेकिन मानव जाति के बौद्धिक विकास के लिए महत्वपूर्ण हो जाता।

हम इस दुनिया में बचे हुए हैं इसलिए नहीं कि योग्य है बल्कि इसलिए कि हम आपको, इस प्रकृति को और पशुओं को प्यार करते हैं।

मेरे एक दोस्त ने हाल ही में कहा था कि "तनु" तुमने तब सबको जवाब देना चाहिए था और मैंने कहा कि तब मेरे पास उससे भी ज्यादा जरूरी काम था।
आज जिस विषय पर चर्चा कर रहे हैं न, ये नहीं कर पाते।

तब उनको विचारों में खो जाते हुए देखा मैंने।
उनकी आँखों की पुतलियों सिकुड़न से उन्हें सोच में पड़ते हुए देखा मैंने।
और फिर मुझे ही उन्हें वापस लाना पड़ा, अरे ज्यादा मत सोचिए, सब ठीक है अब।

हाँ, ठीक तो है पर कैसे किया होगा ?
हम सोच नहीं पाते और...

मैं इसलिए नहीं लिख रही कि किसी को कुछ समझाना है बल्कि इसलिए कि किसी एक को, इसको पढकर कोई एक परिस्थिति में हौसला मिल सकता है और बुरे से बुरी परिस्थिति स्थायी नहीं होती, यकीन मानिए कि हौसला हो तो यह वक्त भी अपने वक्त के साथ गुजर जाएगा।